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________________ -१३३] १०. लोकानुप्रेक्षा दधिकाष्टशतेषु म्लेच्छखण्डेषु ८५० मनुष्या निवृत्त्यपर्याप्तकाः पर्याप्तकाश्च इति द्वौ २, त्रिंशत्सु जघन्यादिभोगभूमिषु ३० मनुष्या निवृत्त्यपर्याप्तकाः पर्याप्तकाश्च इति द्वौ २, समुद्रान्तर्वर्तिषु षण्णवतिकुभोगभूमिषु निर्वृत्त्यपप्तिकाः पर्याप्तकाश्च इति द्वौ २, इंति अष्टप्रकारा मनुष्या भवन्ति ॥ १३२ ॥ अथ लब्ध्यपर्याप्तकमनुष्यस्थाननियम भारकदेवजीवसमासांश्चाह संमुच्छिया मणुस्सा अजव-खंडेसु होति णियमेण । ते पुण लद्धि-अपुण्णा णारय-देवा वि ते दुविहा ॥ १३३ ॥ . [छाया-संमूच्छिताः मनुष्याः आर्यखण्डेषु भवन्ति नियमेन ।ते पुनः लब्ध्यपूर्णाः नारकदेवाः अपि ते द्विविधाः॥] भार्यखण्डेषु सप्तत्यधिकशतप्रमाणेषु १७० संमूर्च्छना मनुष्या नियमेन भवन्ति, नियमात् नान्यत्र भोगभूम्यादिषु । पुनः ते संमूर्च्छना मनुष्या लब्ध्यपर्याप्तका एव १। तेक केषु उत्पद्यन्ते इति चेद् भगवत्याराधनाटीकायो प्रोक्तं च । 'शुक्रसिंहाणकेश्लेष्मदन्तकर्णमलेषु च । अत्यन्ताशुचिदेशेषु सद्यः संमूर्छना भवेयुः ॥' इति । नवप्रकारमनुष्यजीवसमासाः १ । अपि पुनः नारका देवाच ते द्विविधा द्विप्रकाराः । नारकाः पर्याप्ता नित्यपर्याप्ताश्चेति द्वौ । भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनो देवाः पर्याप्ता निवृत्त्यपर्याप्ताश्चेति द्वौ २ । एवममुना प्रकारेणाष्टानवतिजीवसमासाः, जीवाः समस्यन्ते संगृह्यन्ते येर्येषु वा ते जीवसमासा इति निर्वचनात् ॥ इति श्रीखामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायां भट्टारकशुभचन्द्रकृतव्याख्यायां इत्यष्टानवतिजीवसमासाः समाताः । ९८ ॥१३३ ॥ अथ पर्याप्तिभेदान् तलक्षण गाथाद्वयेन प्रतिपादयति तथा लवण समुद्र और कालोदधि समुद्रमें जो ९६ अन्तर्वीप हैं जिनमेंसे २४ अन्तर्वीप लवणसमुद्रके जम्बूद्वीप सम्बन्धी तटके करीबमें हैं और २४ अन्तर्वीप धातकी खण्ड सम्बन्धी तटके निकट हैं । इस तरह ४८ अन्तर्वीप तो लवण समुद्रमें हैं और इसी प्रकार ४८ अन्तर्वीप कालोदधि समुद्रमें हैं, जिनमेंसे चौबीस अभ्यन्तर तटके करीब हैं और २४ बाह्य तटके करीब हैं । इन ९६ अन्तर्वीपोंमें कुभोगभूमि है । अतः ९६ कुभोगभूमियां हैं । इन १७० आर्यखण्डोंमें, ८५० म्लेच्छखण्डोंमें, ३० भोगभूमियोंमें और ९६ कुभोगभूमियोंमें रहनेवाले मनुष्य निवृत्त्यपर्याप्तक और पर्याप्तकके भेदसे दो दो प्रकारके होते हैं । इस तरह मनुष्योंके आठ भेद होते हैं ॥ १३२ ॥ अब लब्ध्यपर्याप्तक मनुध्योंका निवासस्थान बतलाते हुए नारकियों और देवोंमें जीवसमासके भेद बतलाते हैं । अर्थ-सम्मूर्छन मनुष्य नियमसे आर्यखण्डोंमें ही होते हैं। और वे लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं । तथा नारकी और देव निवृत्त्यपर्याप्तक और पर्याप्तकके भेद से दो प्रकारके होते हैं । भावार्थ-एक सौ सत्तर आर्यखण्डोंमें ही सम्मूर्छन मनुष्य नियमसे होते हैं, आर्यखण्डके सिवा अन्य भोगभूमि वगैरहमें नहीं होते। तथा बे सम्मुर्छन मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं। वे सम्मूर्छन मनुष्य कहां उत्पन्न होते हैं । इस प्रश्नका उत्तर भगवती आराधनामें देते हुए बतलाया है कि वीर्यमें, नाकके सिंहाणकोंमें, कफमें, दाँतके मैल में, कानके मैलमें और शरीरके अत्यन्त गन्दे प्रदेशोंमें तुरन्त ही सम्मूर्छन जीव पैदा हो जाते हैं। अस्तु, इस प्रकार मनुष्यकी अपेक्षा जीव समास के नौ भेद होते हैं । तथा नारकी भी पर्याप्त और निवृत्यपर्याप्तकी अपेक्षा दो प्रकारके होते हैं। और भवनवासी, व्यन्तर;. ज्योतिष्क और कल्पवासी देव भी पर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्सकी अपेक्षा दो प्रकारके होते हैं। इस तरह तिर्यञ्चोंके पिचासी, १५ हुंति। २ बला। ३व एव अद्राणउदी मेया। ४ग 'राधनाया। ५ग सिंघाणक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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