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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०९३९एवम् एकत्रीकृतात्रयोविंशतिभेदाः समूर्छनतिर्यचो भवन्ति २३ । तेऽपि त्रयोविंशतिसमूर्छन विर्यचविविधाः, पर्याप्ता: नित्यपर्याताः लब्ध्यपर्याप्ता इति; एवं तेन सर्वे संमूर्छनतिरश्चामेकोनसप्ततिभेदा भवन्ति ६९, पूर्वोक्तगर्भजतिर्यग्भिः षोडशमेदैर्युताः पञ्चाशीतिभेदाः ८५ भवन्ति ॥ इति सर्वेषां तिरश्ची पञ्चाशीतिजीवसमासभेदाः सन्ति ॥ १३१॥ अथ मनुष्यजीवसमासभेदान् निरूपयति अजव-मिलेच्छ-खंडे भोग-महीसे वि कुभोग-भूमीसु । मणुया हवंति दुविहा णिग्वित्ति-अपुण्णगा पुण्णा ॥ १३२ ॥ [छाया-आर्यम्लेच्छखण्डयोः भोगमहीषु अपि कुभोगभूमीषु । मनुजाः भवन्ति द्विविधाः निर्वृत्त्यपूर्णका पूर्णाः ॥] आर्यखण्डम्लेच्छखण्डेषु भोगभूमिष्वपि कुभोगभूमिषु मनुष्या मानवाः भवन्ति ते द्विविधा निर्वृत्त्यपर्याप्ताः पूर्णपर्याप्ताय । तथा हि । सप्तत्यधिकशतेष्वार्यखण्डेषु १७० मनुष्या निवृत्त्यपर्याप्तकाः पर्याप्तकाच इति द्वौ २, पञ्चाश बादर नित्य निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, बादर चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक जीव बादर ही होते हैं । इस तरह एकेन्द्रियके चौदह भेद हुए।१४ । शंख सीप वगैरह द्वीइन्द्रिय, कुन्थु चीटी वगैरह तेइन्द्रिय और डांस मच्छर वगैरह चौइन्द्रिय, ये विकलेन्द्रियके तीन भेद हैं।३। कर्मभूमिया जलचर तिर्यश्च पञ्चन्द्रिय संज्ञी भी होते है और असंज्ञी भी होते हैं । कर्मभूमिया थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च संज्ञी और असंज्ञी । २। कर्मभूमिया नभचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च संज्ञी और असंज्ञी।२। इस तरह कर्मभूमिया पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके छ: भेद हुए। इन सबको जोडनेसे १४+३+६२३ भेद सम्मुर्छन तिर्यश्चोंके होते हैं। ये तेईस प्रकारके सम्मुर्छन तिर्यश्च भी तीन प्रकारके होते हैं पर्याप्त, निवृसपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त । अतः तेईसको तीनसे गुणा करनेपर सब सम्मूर्छन तिर्यञ्चोंके ६९ भेद होते है। इनमें पहले कहे हुए गर्भज तिर्यश्चोंके १६ भेद मिलानेसे सब तिर्यञ्चोंके ६९+१६%८५ पिचासी भेद होते हैं ॥ १३१ ॥ अब मनुष्योंमें जीवसमासके भेद बतलाते हैं। अर्थ-आर्यखण्डमें, म्लेच्छखण्डमें, भोगभूमिमें और कुभोगभूमिमें मनुष्य होते हैं। ये चारों ही प्रकार के मनुष्य पर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त के भेदसे दो प्रकारके होते हैं । भावार्थ- आर्यखण्ड, म्लेच्छखण्ड, भोगभूमि और कुभोगभूमिकी अपेक्षा मनुष्य चार प्रकारके होते हैं । तथा ये चारोंही प्रकारके मनुष्य निवृत्त्यपर्याप्त भी होते हैं और पर्याप्त मी होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है-आर्यखण्ड १७० हैं--पांच भरत सम्बन्धी ५, पांच ऐरावत सम्बन्धी ५, और पांच विदेह सम्बन्धी १६० । क्योंकि एक एक महाविदेहमें बत्तीस बत्तीस उपविदेह होते हैं । तया आठसौ पचास म्लेछखण्ड है; क्योंकि प्रत्येक भरत, प्रत्येक ऐरावत और प्रत्येक उपविदेह क्षेत्रके छः छः खण्ड होते हैं। जिनमेंसे एक आर्यखण्ड होता है, और शेष ५ म्लेच्छखण्ड होते हैं। अतः एक सौ सत्तर आर्यखण्डोंसे पांच गुने म्लेच्छखण्ड होते हैं । इससे १७०४५-८५० आठ सौ पचास म्लेच्छखण्ड हैं। और तीस भोगभूमियां हैं जिनमें ५ हैमवत् और ५ हैरण्यवत् ये दस जघन्य भोगभूमियां हैं । ५ हरिवर्ष और पांच रम्यक वर्ष ये दस मध्यम भोगभूमियां हैं। और पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु ये दस उत्कृष्ट भोगभूमियां हैं । इस तरह कुल तीस भोगभूमियां हैं। १स मिलके, ग मलेच्छ। २ग मोगभूमीस। ३ म स ग मणुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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