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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १३४आहार-सरीरिदिय-णिस्तासुस्सास-भास-मणसाणं'। परिणइ-वावारेसु य जाओ छ ञ्चेव' सत्तीओ ॥ १३४ ॥ [छाया-आहारशरीरेन्द्रियनिःश्वासोच्छ्वासभाषामनसाम् । परिणतिव्यापारेषु च याः षडेव शक्तयः ॥] माहारशरीरेन्द्रियनिःश्वासोच्छासभाषामनसां व्यापारेषु ग्रहणप्रवृत्तिषु परिणतयः परिणतिः परिणमन वा ताः पर्याप्तयः । जाओ याः, सत्तीओ शक्तयः, समर्थता षडेव । एवकारात् न च पञ्च सप्त च । अत्रौदारिकवैक्रियकाहारकशरीरनामको. दयप्रथमसमयमादिकृत्वा तच्छरीरत्रयषट्पर्याप्तिपर्यायपरिणमनयोग्यपुद्गलस्कन्धान खलरसभागेन परिणामयितुं पर्याप्तनामकमांदयावष्टम्भप्रभूतात्मनः शक्तिनिष्पत्तिराहारपर्याप्तिः ।। तथापरिणतपुद्गलस्कन्धानो खलभागं अस्थ्यादिस्थिरावयवरूपेण रसभागं रुधिरादिद्रवावयवरूपेण च परिणामयितुं शक्किनिष्पत्तिः शरीरपर्याप्तिः । २ । आवरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविजम्भितात्मनो योग्यदेशावस्थितरूपादिविषयग्रहणव्यापारे शक्तिनिष्पत्तिर्जातिनामकर्मोदयजनितेन्द्रियपर्याप्तिः ।३। आहारकवर्गणायातपुद्रलस्कन्धान् उच्छासरूपेण परिणामयितुमुच्छासनिःश्वासनामकर्मोदयजनितशक्तिनिष्पति. रुच्छासनिःश्वासपर्याप्तिः । ४ । खरनामकर्मोदयवशात् भाषावर्गणायातपुद्गलस्कन्धान् सत्यासत्योभयानुभयभाषारूपेण परिणामयितुं शक्तिनिष्पत्तिः भाषापर्याप्तिः । ५। मनोवर्गणायातपुद्गलस्कन्धान अनोपाङ्गनामकर्मोदयबलाधानेन न्यमनोरूपेण परिणामयितुं तगम्यमनोबलाधानेन नोईन्द्रियावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषेण गुणदोषविचारानु मनुष्योंके नौ और नारकी तथा देवोंके चार ये सब मिलकर जीव समास के ९८ अठानवें भेद होते हैं। जिनके द्वारा अथवा जिनमें जीवोंका संक्षेपसे संग्रह किया जाता है उन्हें जीवसमास कहते हैं सो इन ९८ जीवसमासोंमें सब संसारी जीवोंका समावेश हो जाता है ॥ १३३ ॥ इस प्रकार खामिकार्तिके. यानुप्रेक्षा की आचार्य शुभचंद्रकृत टीकामें अठानवें जीव समासोंका वर्णन समाप्त हुआ है। अब दो गाथाओंके द्वारा पर्याप्तिके भेद और लक्षण कहते हैं । अर्थ-आहार, शरीर, इन्द्रिय, धासोच्छास, भाषा और मनके व्यापारोंमें परिणमन करनेकी जो शक्तियां हैं वे छः ही हैं ॥ भावार्थआहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्ास, भाषा, और मनके व्यापारोंमें अर्थात् प्रवृत्तियोंमें परिणमन करनेकी जो शक्तियां हैं उन्हींको पर्याप्ति कहते हैं। वे छः ही हैं । पांच नहीं हैं। उनका खरूप इस प्रकार है। पर्याप्ति नाम कर्मके उदयसे विशिष्ट आत्माके, औदारिकशरीरनामकर्म, वैक्रियिक शरीरनामकर्म और आहारक शरीर नामकर्मके उदयके प्रथम समयसे लेकर इन तीनों शरीरों और छ: पर्याप्तियों रूप होनेके योग्य पुद्गलस्कन्धोंको, खल भाग और रस भाग रूप परिणामानेकी शक्तिकी पूर्णताको आहार पर्याप्ति कहते हैं ।१। तथा जिन स्कन्धोंको खल रूप परिणमाया हो उनको अस्थि आदि कठोर अवयव रूप और जिनको रसरूप परिणमाया हो उनको रुधिर आदि द्रव अवयव रूप परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको शरीर पर्याप्ति कहते हैं ॥२॥ ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे विशिष्ट आत्माके जातिनाम कर्मके उदयके अनुसार योग्य देशमें स्थित रूप आदि विषयोंको ग्रहण करनेकी शक्तिकी पूर्णताको इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं ॥ ३ ॥ उच्छासनिःश्वासनाम कर्मका उदय होनेपर आहार वर्गणारूपसे ग्रहण किये गये पुद्गलस्कन्धोंको श्वासोच्छ्रास रूपसे परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको उष्छासनिःश्वास पर्याप्ति कहते हैं ॥ ४ ॥ खर नाम कर्मका उदय होनेसे भाषा वर्गणारूपसे ग्रहण किये गये पुगलस्कन्धोंको सत्य, असल्य, उभय और अनुभव १ म ग सरीरदिय । २स हास । ३ मणुसाणं । ४ व परिणवइ । ५५ छब्वेव । ६ ल ग मनो इन्द्रिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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