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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १३०त्रिप्रकासः, जलस्थलाकाशगामिनो मेदात् । केचन जलचारिणो मत्स्यकूर्मादयः । । केचन स्थलचारिणो हस्तियोटक गोमहिषव्याघ्रवकसिंहमृगशशकादयः । २ । केचन भाकाशगामिनः शुककाकवचटकसारसहखमयूरादयः । ।। च पुनः, जलमामिप्रमखास्तिर्यचो जीवास्त्रिविधा थपि, प्रत्येकं एक एक प्रति प्रत्येक, द्विविधा भवन्ति । ते के। एके नानाविकल्पजालमनमा चेतसा युक्ताः सहिताः संज्ञिनस्तियेच्चो जीवाः। एके नानाविकल्पजालमनसा अयुक्ताः नानाविकल्पजालमनोरहिता असज्ञिनः मण्डकादयः। तथा हि जलचरतिर्यचौ संश्यसंज्ञिनौ, स्थलचरतियौ संश्यसज्ञिनौ, नभःस्थतियची संत्यसंज्ञिनौ, इत्यर्थः ॥ १२९ ॥ अथ तेषां तिरश्वा भेदानाह ते वि पुणो विय दुविहा गम्भज-जम्मा तहेव संमुच्छा। भोग-भुवा गम्भ-भुवा थलयर-णह-गामिणो सण्णी ॥ १३०॥ [अमा-ते अपि पुनः अपि च द्विविधाः गर्भजजन्मानः तथैव संमूर्च्छनाः। भोगभुवः गर्भभुवः स्थमवर. नभोगामिनः संज्ञिनः ॥ पुनः तेऽपि पूर्वोक्काः षड्विधास्तिर्यचो द्विविधा द्विप्रकाराः। एके गर्भजन्मानः, जायमानबीवेन शुकशोणितरूपपिण्डस्य गरणं शरीरतयोपादानं गर्भः, ततो जाता ये गर्भजाः तेषां गर्भजानां जन्म उत्पत्तियेषां ते गर्मजन्मानः, मातुर्गर्भसमुत्पना इत्यर्थः । तथैव संमूर्छनाः गर्भोत्पादरहिताः। सं समन्तात् मूर्छनं जायमानजीवानुमाहकाणा" जीवोपकाराणां शरीराकारपरिणमनयोग्यपुगलस्कन्धानां समुच्छ्रयणं तत् विद्यते येषां ते संमूर्छनचरीराः । नभचर । इन तीनोंमेंसे प्रत्येकके दो दो भेद हैं-एक मन सहित सैनी और एक मन रहित असैनी ॥ भावार्थ-पञ्चेन्द्रिय नाम कर्मके उदयसे तिर्यश्च जीव पश्चेन्द्रिय होते हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च जीवोंके तीन भेद हैं-जलचर, थलचर और नभचर। अर्थात् कुछ पश्चेन्द्रिय जीव जलचर होते हैं। जैसे मछली, कछुआ वगैरह। कुछ थलचर होते हैं-जैसे हाथी, घोड़ा, गाय, भैंस, व्याघ्र, भेड़िया, सिंह, मृग, खरगोश, वगैरह । और कुछ पञ्चेन्द्रिय जीव नभचर होते हैं, जैसे तोता, कौआ, बगुला, चिड़िया, सारस, हंस, मयूर, वगैरह। इन तीनों प्रकार के तिर्यञ्चोंमेंसे मी प्रत्येकके दो दो भेद होते हैं-एक अनेक प्रकारके संकल्प विकल्पसे युक्त मन सहित सैनी तिर्यश्च और एक अनेक प्रकारके संकल्प विकल्प युक्त मनसे रहित असैनी तिर्यश्च । अर्थात् सैनी जलचर तिर्यञ्च, असैनी जलचर तिर्यश्च, सैनी थलचर तिर्यश्च असैनी थलचर तिर्यश्च, सैनी नभचर तिर्यश्च, असैनी नभचर तिर्यश्च । इस तरह पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके छः भेद हुए ॥ १२९ ॥ अब इन तिर्यश्चोंके भी भेद कहते हैं। अर्थ-इन छ: प्रकारके तिर्यञ्चोंके भी दो भेद हैं-एक गर्भजन्म वाले और एक सम्मूर्छन जन्म वाले । किन्तु भोग भूमिके तिर्यश गर्भज ही होते हैं । तथा वे थलचर और नभचर ही होते हैं, जलचर नहीं होते । और सब सैनी ही होते हैं असैनी नहीं होते ॥ भावार्थ-वे पूर्वोक्त छ: प्रकारके तिर्यश्च मी दो प्रकारके होते हैं-एक गर्भजन्म वाले और एक सम्मूर्छन जन्म वाले । जन्म सैने वाले जीवके द्वारा रज और वीर्य रूप पिण्डको अपने शरीर रूपसे परिणमानेका नाम गर्भ है। उस गर्भसे जो पैदा होते हैं उन्हें गर्भजन्म वाले कहते हैं । अर्थात् माताके गर्भसे पैदा होने वाले जीव गर्भजन्मवाले कहे जाते हैं। शरीरके आकाररूप परिणमन करनेकी योग्यता रखनेवाले पुद्गल स्कन्धोंका चारों ओरसे एकत्र होकर जन्म लेने वाले जीवके शरीर रूप होनेका नाम सम्मूर्छन है और सम्मूर्छनसे जन्म लेने वाले जीव सम्मूर्छन जन्म वाले कहे जाते हैं। किन्तु भोगभूमिया तिर्यश्च गर्भज ही होते हैं, सम्मूर्छन जन्मवाले १.भुया। २स नभ। ३लग जायते ४गकारणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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