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________________ -१२९] १०. लोकानुप्रेक्षा तितिणीकसहकारादिशरीरम् अप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरमित्येते । अपि च त्रसाः सनामकर्मोदयात् त्रसजीवा द्विविधाः द्विप्रकाराः, विकलेन्द्रियाः सकलेन्द्रियाश्चेति । तत्र विकलेन्द्रियाः वितिचउरक्खा द्वित्रिचतुरिन्द्रिया जीवाः। शंखादयो द्वीन्द्रियाः स्पर्शनरसनेन्द्रिययुक्ताः । पिपीलिकामत्कुणादयस्त्रीन्द्रियाः स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रिययुक्ताः । भ्रमरमक्षिकादंशमशकादयश्चतुरिन्द्रियाः स्पर्शनरसनघ्राणलोचनेन्द्रिययुक्ताः। तहेव तथैव, पञ्चेन्द्रियाः सकलेन्द्रियाः, मनुष्यदेवनारकपश्वादयः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रिययुक्ताः सकलेन्द्रियाः कथ्यन्ते ॥ १२८ ॥ अथ पञ्चेन्द्रियतिरश्चा भेदं विवृणोति पंचक्खा वि य तिविहा जल-थल-आयास-गामिणो तिरिया । पत्तेयं ते दुविहा मणेण जुत्ता' अजुत्ता य ॥ १२९ ॥ [छाया-पञ्चाक्षाः अपि च त्रिविधाः जलस्थलआकाशगामिनः तिर्यञ्चः । प्रत्येक ते द्विविधाः मनसा युक्ताः अयुक्ताः च ॥] पञ्चाक्षाः पञ्चेन्द्रियनामकर्मोदयेन पञ्चेन्द्रियतिर्यचो जीवाः भवन्ति । अपि च पुनः, ते त्रिविधाः वनस्पतिको साधारण जीवोंका आश्रय होनेसे साधारण कहा है। तथा जिस वनस्पतिमें उक्त बातें न हों अर्थात् जिसमें धारियां वगैरह स्पष्ट दिखाई देती हों, तोड़ने पर समान टुकड़े न हों, टूटने पर तार लगा रह जाये आदि, उस वनस्पतिको अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर कहते हैं ॥२॥ जिस वनस्पतिकी जड़, कन्द, छाल, कोंपल, टहनी, पत्ते, फूल, फल और बीजको तोड़ने पर खटसे बराबर २ दो टुकड़े हो जायें उसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं । और जिसका समभंग न हो उसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं ॥३॥ तथा जिस वनस्पतिके कंदकी, जड़की, टहनीकी, अथवा तनेकी छाल मोटी हो वह अनन्त काय यानी सप्रतिष्ठित प्रत्येक है । और जिस वनस्पतिके कन्द वगैरहकी छाल पतली हो वह अप्रतिष्ठित प्रत्येक है ॥ ४ ॥ इस तरह श्री गोम्मटसारमें सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित वनस्पतिकी पहचान बतलाई है। अस्तु, अब पुनः मूल गाथा का व्याख्यान करते है। प्रत्येक वनस्पति के दो भेद हैं-एक निगोद सहित, एक निगोद रहित । अथवा एक सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर, एक अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर । जिन प्रत्येक वनस्पतिके शरीरोंको निगोदिया जीवोंने अपना वासस्थान बनाया है उन्हे सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर कहते हैं। उनकी पहचान ऊपर बतलाई है। और जिन प्रत्येक वनस्पतिके शरीरोंमें निगोदिया जीवोंका आवास नहीं है उन्हें अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर कहते हैं । जैसे पके हुए तालफल, नारियल, इमली,आम वगैरहका शरीर । जिनके त्रस नाम कर्मका उदय होता है उन्हें त्रस जीव कहते हैं । उनके भी दो भेद हैं-एक विकलेन्द्रिय, एक सकलेन्द्रिय । दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीवोंको विकलेन्द्रिय कहते हैं; क्यों कि शंख आदि दो इन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन और रसना दो ही इन्द्रियां होती हैं। चिऊंटी, खटमल वगैरह तेइन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना और घ्राण, ये तीन ही इन्द्रियां होती हैं। और भौंरा, मक्खी, डांस, मच्छर वगैरह चौइन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, प्राण और चक्षु ये चार ही इन्द्रियां होती हैं। अतः ये जीव विकलेन्द्रिय कहे जाते हैं । मनुष्य, देव, नारकी, पशु आदि पञ्चेन्द्रिय जीवोंको सकलेन्द्रिय कहते हैं, क्यों कि उनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांचों इन्द्रियां पाई जाती हैं. ॥ १२८ ॥ अब पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके भेद बतलाते हैं । अर्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च जीवोंके भी तीन मेद हैं-जलचर, थलचर और ल तितिडीक, ग तितडीक। २म हुत्ता बहुत्ता य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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