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________________ १३ -२७] २. अशरणानुप्रेक्षा मन्त्रः, तन्त्रम् औषधादिकम् , च पुनः, क्षेत्रपालः क्षेत्रप्रतिपालकः कोऽपि सुरः । कम् । मनुष्यं नरम् । अपिशब्दात् सुरमसुरे च । कीदृशम् । म्रियमाणं मरणावस्था प्राप्तम् । तो तर्हि मनुष्याः नराः अक्षयाः क्षयरहिता मरणातीता अविनाशिनो भवन्ति ॥ २५॥ अइ-बलिओ वि रउद्दो मरण-विहीणो ण दीसदे' को वि। - रक्खिजंतो वि सया रक्ख-पयारेहिँ विविहेहिं ॥ २६ ॥ [छाया-अतिबलिष्ठः अपि रौद्रः मरणविहीनः न दृश्यते कः अपि । रक्ष्यमाणः अपि सदा रक्षाप्रकारैः विविधैः॥] कोऽपि नरः सुरो वा न दृश्यते न विलोक्यते । कीदृक्षः । मरणविहीनः मृत्युरहितः । कीदृक्षः । अतिबलिष्ठः शतबलसहस्रबललक्षबलकोटिबलादिशक्तियुक्तः । अपिशब्दात् न केवलं निबेलः । रौद्रः भयानकः । पुनः कथंभूतः। सदा सर्वदा रक्ष्यमाणोऽपि, अपिशब्दात् अरक्ष्यमाणोऽपि । कैः । विविधैः अनेकैः रक्षाप्रकारैः प्रतिपालनभेदैः गजतुरगसुभटास्त्रप्रकारैः मन्त्रतत्रादिभिश्च ॥ २६ ॥ एवं पेच्छंतो' वि हु गह-भूय-पिसाय-जोइणी-जक्खं । सरणं मण्णई मूढो सुगाढ-मिच्छत्त-भावादो ॥ २७॥ [छाया-एवं पश्यन्नपि खलु गृहभूतपिशाचयोगिनीयक्षम् । शरणं मन्यते मूढः सुगाढमिथ्यात्वभावात् ॥ मन्यते जानाति । कः । मूढोअज्ञानी मोही च । किम् । शरणं श्रियते आर्तिपीडितेनेति शरणम्। किम् । ग्रहभूतपिशाच. योगिनीयक्ष, प्रहाः आदित्यसोममङ्गलबुधबृहस्पति शुक्रशनिराहुकेतवः, भूता व्यन्तरदेव विशेषाः, पिशाचास्तथा योगिन्यः चण्डिकादयः, यक्षा मणिभद्रादयः, द्वन्द्वः तेषां समाहारः प्रहभूतपिशाचयोगिनीयक्षम् । कुतः । सुगाढमिथ्यात्वभावात् , सुगाढम् अत्यर्थं मिथ्यात्वस्य परिणामातू, हु स्फुटम् । कीदृशः । एवं पूर्वोकमशरणं पश्यन्नपि प्रेक्षमाणोऽपि ॥२७॥ अपने प्रियजनोंकी रक्षाके लिये देवी-देवताओंकी मनौती करते हैं । कोई महामृत्युञ्जय आदि मंत्रोंका जप करवाते हैं । कोई टोटका करवाते हैं। कोई क्षेत्रपालको पूजते हैं। कोई राजाकी सेवा करते हैं। किन्तु प्रन्थकार कहते हैं, कि उनकी ये सब चेष्टाएँ व्यर्थ हैं, क्योंकि इनमेंसे कोई भी उन्हें मृत्युके मुखसे नहीं बचा सकता । यदि ऐसा होता तो सब मनुष्य अमर होजाते, किसी न किसीके शरणमें जाकर सभी अपनी प्राणरक्षा कर लेते ॥ २५॥ अर्थ-अत्यन्त बलशाली, भयानक, और रक्षाके अनेक उपायोंसे सदा सुरक्षित होते हुए भी कोई ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता, जिसका मरण न होता हो । भावार्थ-कोई कितना ही बलशाली हो, कितना ही भयानक हो, और सदा अपनी रक्षाके लिये हाथी, घोड़े, तीर, तलवार, मंत्र, तंत्र आदि कितने ही रक्षाके उपायोंसे सुसज्जित रहता हो, किन्तु मृत्युसे बचते हुए किसीको नहीं देखा ॥ २६ ॥ अर्थ-ऐसा देखते हुए भी मूढ जीव प्रबल मिथ्यात्वके प्रभावसे ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी और यक्षको शरण मानता है । भावार्थ-मनुष्य देखता है, कि संसारमें कोई शरण नहीं है, एक दिन समीको मृत्युके मुखमें जाना पड़ता है, इस विपत्तिसे उसे कोई भी नहीं बचा सकता । फिर भी उसकी आत्मामें मिथ्यात्वका ऐसा प्रबल उदय है, कि उसके प्रभावसे वह अरिष्ट निवारणके लिये ज्योतिषियोंके चक्करमें फँस जाता है, और सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, और केतु नामके ग्रहोंको तथा भूत, पिशाच, चण्डिका १लम सग दीसए। २ब पिच्छतो। इस भूइपिसाइ। ४ग मन्ना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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