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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २८आउ-क्खएण मरणं आउं दाउं ण सक्कदे को वि। । तम्हा देविंदो वि य मरणाउ ण रक्खदे को वि ॥ २८ ॥ [छाया-आयुःक्षयेण मरणम् आयुः दातुं न शक्नोति कः अपि । तस्मात् देवेन्द्रः अपि च मरणात् न रक्षति का भपि॥] यस्मादित्यध्याहार्यम् । आयुःक्षयण आयुष्कर्मणः क्षयेण विनाशेन मरणं पश्चत्वं भवेत् । कोऽपि इन्द्रो वा नरेन्द्रो वा आयुः जीवितव्यं दातुं वितरितुं न शक्नोति समर्थों न भवति । तस्मात्कारणात् , अपि च विशेषे, कोऽपि देवेन्द्रः सुरपतिर्वा मरणात् मृत्योः न रक्षति नावति ॥ २८ ॥ अप्पाणं पि' चवंतं जह सक्कदि रक्खिदुं सुरिंदो वि । तो किं छंडदि सग्गं सव्वुत्तम-भोय-संजुत्तं ॥ २९ ॥ [छाया-आत्मानमपि च्यवन्तं यदि शक्नोति रक्षितुं सुरेन्द्रः अपि । तत् किं त्यजति वर्ग सर्वोत्तमभोगसंयुक्तम् ॥] अपि च पुनः, यदि चेत् सुरेन्द्रोऽपि देवलोकपतिः न केवलमन्यः, आत्मानमपि, अपिशब्दात् अन्यमपि च्यवन्तं स्वर्गादिपतितं, रक्षितुं पालयितुं शक्तः समर्थो भवति, तो तर्हि वर्ग देवलोकम् इन्द्रः किं कथं त्यजति मुञ्चति । कीदृक्षं तम् । सर्वोत्तमभोगसंयुक्तं सर्वोत्कृष्टाभोग्यदेवीविमानवैक्रियादिसमुद्भवास्तैः संयुक्त सहितम् ॥ २९ ॥ वगैरह व्यन्तरोंको शरण मानकर उनकी आराधना करता है ॥ २७ ॥ अर्थ-आयुके क्षयसे मरण होता है, और आयु देनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है। अतः देवोंका स्वामी इन्द्र भी मरणसे नहीं बचा सकता है ॥ भावार्थ-अभीतक ग्रन्थकार यही कहते आये थे, कि मरणसे कोई नहीं बचा सकता । किन्तु उसका वास्तविक कारण उन्होंने नहीं बतलाया था। यहाँ उन्होंने उसका कारण बतलाया है । उनका कहना है, कि आयुकर्मके समाप्त होजानेसे ही मरण होता है, जबतक आयुकर्म बाकी है, तबतक कोई किसीको मार नहीं सकता । अतः प्राणीका जीवन आयुकर्मके आधीन है। किन्तु आयुका दान करनेकी शक्ति किसीमें भी नहीं है; क्योंकि उसका बन्ध तो पहले भवमें स्वयं जीव ही करता है । पहले भवमें जिस गतिकी जितनी आयु बँध जाती है, आगामी भवमें उस गतिमें जन्म लेकर जीव उतने ही समयतक ठहरा रहता है। बँधी हुई आयुमें घट-बढ़ उसी भवमें हो सकती है, जिस भवमें वह बाँधी गई है। नया जन्म ले लेनेके बाद वह बढ़ तो सकती ही नहीं, घट जरूर सकती है । किन्तु घटना भी मनुष्य और तिर्यञ्चगति में ही संभव है, क्योंकि इन दोनों गतियोंमें अकालमरण हो सकता है। किन्तु देवगति और नरकगतिमें अकालमरण भी नहीं होसकता, अतः वहाँ आयु घट भी नहीं सकती। शङ्का-यदि आयु बढ़ नहीं सकती तो मनुष्योंका मृत्युके मयसे औषधी सेवन करना भी व्यर्थ है। समाधान-ऊपर बतलाया गया है, कि मनुष्यगतिमें अकालमरण हो सकता है । अतः औषधीका सेवन आयुको बढ़ानेके लिये नहीं किया जाता, किन्तु होसकनेवाले अकालमरणको रोकनेके लिये किया जाता है । अतः मृत्युसे कोई भी नहीं बचा सकता ॥ २८ ॥ अर्थ-यदि देवोंका स्वामी इन्द्र मरणसे अपनी भी रक्षा करनेमें समर्थ होता तो सबसे उत्तम भोगसामग्रीसे युक्त खर्गको क्यों छोड़ता ? भावार्थ-दूसरोंको मृत्युसे बचानेकी तो बात ही दूर है । किन्तु १लग च। २ ब चवंतो। ३ बरनिखयं, ग रक्खिदो। ४ ग छडिदि। ५ल अपि न पुनः। ६ल अन्यत्र किमपि च्यवन्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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