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________________ ३८ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन है - ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार ।' जब तक चेतनाकी शक्ति किसी विशेष पदार्थ के प्रति विशेष रूपसे उपयुक्त नहीं होती, तब तक वह दर्पण तलकी भाँति सामान्य रूपसे ज्ञानाकार मात्र होती है, उसमें पदार्थों की विशेषताओंका ग्रहण नहीं होता, केवल स्वरूप मात्रका ही ग्रहण होता है, चेतनाके इस सामान्य उपयोगको ही दर्शनोपयोग कहा गया है । २ चेतनाकी शक्ति जिस समय ज्ञानाकार मात्र न रहकर ज्ञेयाकार रूप हो जाती है, उस समय उसमें शुक्लत्व, कृष्णत्व आदि विशेष रूपोंका ग्रहण होने लगता है, जो स्वरूप मात्र न होकर ज्ञेयाकार रूप होता है, वह उपयोग ज्ञानोपयोग कहलाता है । इस प्रकार " निर्विकल्पकं दर्शनम् सविकल्पकम् ज्ञानम् ” कहा गया है । इस प्रकार दर्शन और ज्ञानके इन दो भेदों को क्रमशः "परिचय ज्ञान" और " विशिष्ट ज्ञान" भी कहा जा सकता है, क्योंकि पहले में विषय और विषयीका सम्पर्क मात्र होता है और दूसरेमें उस वस्तुके वर्ग और स्वरूपके बारेमें व्यापक जानकारी प्राप्त होती है । गोपालन एस. के अनुसार दर्शन तथा ज्ञान शब्दों का प्रयोग अनिर्णीत तथा निर्णीत स्तरोंके लिए किया गया है । " कर्ममलसे लिप्त, संसारी जीवों का ज्ञान और दर्शन पूर्णरूपेण स्पष्ट और निर्मल नहीं होता, परन्तु कर्मसे मुक्त शुद्धजीवोंका ज्ञान और दर्शन परिपूर्ण, स्पष्ट और निर्मल होता है, जिसे केवलज्ञान और केवलदर्शन कहा जाता है। जैन दर्शनमें आत्माको दर्शन और ज्ञानस्वभावी माना गया है। जैन दर्शन का यह विचार न्यायवैशेषिककी मान्यताका निराकरण करता है, क्योंकि न्यायवैशेषिकोंने ज्ञानको आत्माका आगन्तुक गुण माना है, यहाँ तक कि स्वप्न रहित नींद में भी आत्माके ज्ञान गुणका अभाव कहा है, जब कि जैन दर्शनमें जीवकी सभी अवस्थाओंमें, ज्ञान तथा दर्शन गुणों को चैतन्यके साथ अन्वित स्वीकार राजवार्तिक, पृ० ३४ जं सामण्णं गहणं भावाणं णैव कट्टुमायारं । अविसेसदूण अठ्ठे दंसणमिदि भण्ण्ए समये ।। द्रव्यसंग्रह, गाथा ४३ ३. ब्रह्मदेव टीका, द्रव्य संग्रह, गाथा ४३-४४ ४. ब्रह्मदेव टीका, द्रव्यसंग्रह गाथा ४ ५. गोपालन, एस., , जैन दर्शन की रूपरेखा, १९७३, पृ० ४९वाइलो ईस्टर्न लि० नई दिल्ली ६. द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा २ ७. हिरियन्ना एम.. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, १० २३० १. २. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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