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________________ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें ३७ कि जीवन शरीरकी ही उत्पत्ति या सम्पत्ति है, क्योंकि मृत्यु के समय शरीर के विद्यमान रहनेपर भी उसमें चैतन्य का अभाव देखा जाता है। जैन दर्शनका चेतना संबंधी यह विचार सांख्य दर्शन और वेदान्त दर्शन से समानता रखता है, क्योंकि इन दोनों दर्शनों में चेतनाको आत्माका मूल स्वरूप माना गया है । __ इस प्रकार चेतना गुण को, यद्यपि सभी दर्शनोंने स्वीकार किया है, परन्तु जैन दर्शनका विचार न्यायवैशेषिक और चार्वाकसे विभिन्नता रखता है और सांख्य और वेदान्तसे समानता रखता है। २. जीवका उपयोग जीवके उपयोगका लक्षण करते हुए पंचास्तिकायकी तात्पर्यवृत्तिमें कहा गया है -- "आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम: उपयोग:"३ आत्माके चैतन्यानुविधायी परिणामको उपयोग कहते हैं, अर्थात् जो परिणाम आत्माके चैतन्य गुणके साथ अन्वित रूपमें रहता है, वह परिणाम उपयोग कहलाता है । जीवकी चेतना शक्ति तो एक है, परन्तु वह स्व और पर पदार्थों को ग्रहण करने में प्रवृत्त रहती है, इसीलिये वीरसेन स्वामीने कहा है - "स्वपरग्रहणपरिणाम: उपयोग: चैतन्य के साथ अन्वित रूपसे परिणमन करने वाला, स्व और पर पदार्थों को ग्रहण करने वाला जीवका उपयोग जीवके साथ सर्वकालमें अनन्य रूपसे ही रहता है -- “जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि"५ यद्यपि जीव गुणी है और उपयोग जीवका एक विशेष गुण है, परन्तु जैन दर्शनमें गुण गुणीका तादात्म्य संबंध माना गया है और तादात्म्य संबंधके कारण ही जीवको उपयोग लक्षण वाला कहा गया है।६ चेतनाके साथ अनन्य रूप से रहने वाले जीवका उपयोग दो प्रकारका होता १. दास गुप्त, भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग १, पृ० १९८ २. के०सी० सोगानी, एथिकल डॉक्ट्राइन इन जैनिज़म, १९६७, पृ० ३१ । जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर। ३. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा ४० ४. षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक २, खण्ड १, पृ० ४१३ ५. पंचास्तिकाय, गाथा ४० ६. उपयोगो लक्षणम्, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ८ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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