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________________ प्रतिष्ठा का मोह और भय उसके ज्ञान नेत्रों पर परदा डाल देते है ।"९० इसी पर्दे को लात मारकर आपने संविज्ञ दीक्षा ग्रहण की और अन्यों को दीक्षा-प्रदान अवसरों पर भी आपने उचित मूल्यों को निभाया और आदर्श साधु संस्थाका निर्माण किया। संयम जीवनके प्रत्येक क्रियानुष्ठानों-आचार-विचार-व्यवहार, आराधना-साधनाको, ज्ञान-प्राप्ति और चारित्र गठनकी प्रत्येक सूक्ष्मातिसूक्ष्म बातोंका भी कड़ी निगरानीसे पालन करके और करवाके यतियों और शिथिलाचारियोंकी नागचूड़से संविज्ञ साधु समुदायका उद्धार करके समाजके सामने उत्तम प्रायोगिक आदर्श प्रस्तुत किया । “आप ढूंढकवेश छोड़कर संविज्ञ साधु वने यह कल्पनातीत साहस भी आपकी उत्कृष्ट मनोदशा, केवल सत्यके स्वीकारके लिए अप्रतिम नैतिक हिंमत और सत्यको विजयी एवं असत्यको पराजित सिद्ध करनेकी हार्दिक अभिलाषाका श्रेष्ठ प्रयोग ही है । अथवा 'सर्व धर्म परिषद-चिकागो में जैन समाजके भक्त अनुयायीओंके प्रखर विरोधका सामना करके दृढ़ निर्धारके साथ जैन धर्मकी यशस्वी विजय पताका फहराने के लिए श्रीयुत वीरचंदजी गांधीको अमरिका भेजनेवाले इस महान गुरुदेवकी प्रायोगिक सिद्धिको ही प्रमाणित करता है ।"९१ आपकी जीवन प्रयोगशालाके प्रयोगोंका मुख्य ध्येय सत्यावलम्बन कहा जा सकता है जिसमें से सत्यका निर्मल नीर जीवन-तृप्ति प्रदान करता है। जीवन-गुणोंका समुच्च-नम्रता व निरभिमानता --- “निर्मल थे गंगाजल - से तुम, विस्तृत उच्च हिमालय - से तुम, पावन नीलनभांचल-से तुम, तुममें जल-थल-गिरि-नभ छवि छायी सुखधाम ।"१२ आपके जीवन राहमें फूल नहीं बिछे थे, लेकिन आप स्वयं फूल बनकर महके-सुवास बिखेरी।" शायद समुद्रकी अगाधताका पता लगाया जा सकता है, लेकिन सच्चे साधक-महा पुरुषों के गुणोंकी असीमताका वर्णन करना असंभव-सा है। वे आकाश-तुल्य-अनंत होते हैं। लेकिन सुरीश्वजीके अंतस्तलके उद्गारकी ओर गौर करें- 'सर्व गुणोंमें निरभिमानता नम्रता मुख्य गुण है, यह बात मत भूलना। जिसका रस-कस सूख गया हों वह सूखा वृक्ष ठिठुरकर-अक्कड़ वनकर खड़ा रहता है, लेकिन जिसमें रस है, जो प्राणी मात्रको मीठे फल प्रदान करता है वह तो नीचे झुककर ही अपनी उत्तमता सिद्ध करता है। नम्रतासे शरमाता नहीं है। हमें पके फलसे झूकनेवाले आम्र-तरु सदृश सर्वदा नम्रीभूत वन कर लोकोपकार करना चाहिए। ९३ इसी हार्दिक-नम्र मनोवृत्तिने ही, अपनी राहोंमें रोड़ा अटकानेवाले-प्रचंड विरोधकी आँधी . फूंकनेवाले-पूज्यजी अमरसिंहजीके , रास्तेमें मिलनेपर दो हाथोंसे प्रेमपूर्वक नीचे बिठाकर, विनयपूर्वक विधिवत् वंदना करवायी थी; तो स्वंय आचार्य पदारूढ़ होने पर भी अपने बड़े गुरुजनोंसे वंदनव्यवहार और उचित विनय विवेकका ध्यान रखवाया था। गुरुजी जीवनमलजीने जब आपके विरोधमें निकाले गए अमरसिंहजीके प्रतिवाद-पत्र पर अपने हस्ताक्षर किये तब भी उसी नम्रताने गुरुके दोष दर्शन नहीं होने दिये थे; तो अचलगच्छीय श्री हेमसागरजी-जो अपने आपको जंगम युगप्रधान मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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