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________________ बैठे थे, उनको-एक जगह पर आपके होनेवाले स्वागत जुलूसमें अपनेसे आगे चलनेकी स्वेच्छासे संमति देकर संतुष्टि प्रदान की और समाजमें नम्रता-उदारता-सरलताकी अनमिट छाप अंकित कर ली। पू. मूलचंदजी महाराजके भेजे हुए ध्रांगध्राके दो अजनबी शख्शोंको दीक्षा दे देनेके पश्चात् अहमदाबादके अग्रणी-नगरशेठका, उनको दीक्षा-प्रदानके निषेधका पत्र आता है, तब अत्यंत पश्चात्तापके साथ अपनी अपूर्णता-जल्दबाज़ी और तुच्छ बुद्धिका स्वीकार करके हार्दिक नम्रताका नमूना पेश करनेवाले सूरिजीके निश्चयात्मक निर्धारको कलकत्ताके बाबू बद्रीदासजीकी नम्र अर्जभी परिवर्तीत नहीं कर सकती है।५ अर्थात् आपकी नम्रतामें नमायेपनका आभास नहींहे, न कमज़ोर कायरोंकी झलक हैं, लेकिन निरभिमानतायुक्त स्वतंत्रताकी सच्ची दिलेरी छलकती है। आपकी नम्रता और निरभिमानताकी चरमसीमा तब अनुभूत होती है, जब आप-एक दिग्गज विद्वान, मान-सम्मान एवं आदर-सत्कारके उत्तुंग शिखर पर स्थित थे, सत्यासत्यके निर्णयानन्तर तृणवत् मान करके बेझिझक बेफिकर स्थानकवासी समाजको त्यागकर भगवान श्री महावीर स्वामी के सत्य पंथके पथिक बननेको सनद्ध हुए। उस समय २२ वर्षके दीर्घ दीक्षा पर्यायका आग्रह न रखते हुए अहमदाबादमें पूज्यपाद मुनीश्री बुद्धिविजयजी (श्री बूटेरायजी म.)की निश्रामें, शुद्ध-संविज्ञचारित्र-संयम मार्ग अंगीकार करके. विधिवत भगवान महावीरकी आज्ञाको ही सर्वोपरि मानकर स्वीकार किया। साहसिकता---भारतके महान संतरी पंजाब-जिसकी ऐतिहासिक भूमि-रत्नगर्भा वसुंधरा-की शक्ति अपार है-, उसने, स्वयंके बाहुबलसे बंदीखानेकी बेडियाँ तोड़कर मुक्त होनेवाले बलवान और बंडखोर बापके बहादूर बेटे की भेंट जैन जगतको दी। जिसकी नैष्ठिक साहसिकताने नूतन ज्ञान रश्मियाँ युक्त तीक्ष्ण-भेदक विवेक चक्षुका उद्घाटन करके संप्रदायकी सूक्ष्म बेडियोंको तोड़कर और तुड़वाकर स्व-पर जीवनका उद्धार किया, समाजको नया राह दिखाया और अंधकार गर्तसे उद्धारनेवाले सत्यालोकका स्वरूप प्रस्तुत करके अपने खूनके परंपरागत अधिकारको स्थापित किया; मानो अपने उत्तराधिकारका सात्त्विक उपभोग किया। जीवन संग्राममें असत्यके विरुद्ध निर्भीक योद्धाकी तरह लड़ते रहें और द्रव्य-क्षेत्र-काल भावानुसार मृतप्रायः जैन परंपराओंकी कई भ्रान्तियाँ निवारण करके नये आयाम और नये अर्थों में रुपांतरित किया। सत्य धर्मके प्रचारका मार्ग तलवारकी धार सदृश दुर्गम था और परिस्थितिको सत्यानुकूल बनाना लोहे के चने चबाना था। लेकिन, आपकी सत्यदर्शी साहसिकताने ही आपके व्यक्तित्वको एक क्रान्तिकारका रूप प्रदान किया। जो केवल कल्पनाके सुनहरे स्वप्न ही नहीं देखते थे, वैचारिक आंदोलनोंको क्रियात्मक रूप भी देनेका तत्काल प्रयत्न करते थे-“आपके चारित्रमें धगधगायमान ज्वालामुखीकी प्रलय-प्रचंड़ता नहीं है, लेकिन भूकंपकी विनाशकता है। ग्रीष्मके मध्याह्न सूर्यकी भीषणता नहीं, पर सर्दीको दूरकर, बादलको बिखेरकर, ओस और कोहरेको शोषित करनेवाले वाल रविकी शनैः शनैः वृद्धिगत दमदार गरमी है। बर्फिली शिलाओंको घसिटते, पहाडोंको विदारते, अनेक हस्तोंसे सागरको भेटनेवाले महानदकी प्रखर (73) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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