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________________ अर्थात् साधर्मिक अभ्युदय, पीड़ित-दलित-विधवादिके उत्थान, साहित्य प्रकाशन, शिक्षाप्रचारादि रचनात्मक----भागीरथीको बहाकर समाज सेवा की जड़ोंको भली भाँति सिंचा, फलतः आज वह विशाल वृक्ष बना है - जिसके मीठे फल सभी चख रहे हैं-समाज सुधारका आस्वाद ले रहे हैं। पूज्य आचार्यश्री ही ऐसे सर्व प्रथम जैन साथु थे जिन्होंने ऐसे समाजोत्थानके कार्य-सेवाको प्राधान्य दिया और उसके लिए अपना जीवन तक समर्पित किया। आपका निजी आध्यात्मिक जीवन ज्ञान-ध्यानमें लीन था साथ ही आचार्यत्व भी विश्व कल्याण कामनासे ओतप्रोत था। जीवन-एक प्रयोगशाला---आपका जीवन एक विशाल और वैविध्यपूर्ण प्रयोगशालाका जीवंत स्वरूप कहा जा सकता है, जिसमें सत्यका अन्वेषण, क्रान्तिकारी परिवर्तनका निर्देशन और भगवान महावीरके अहिंसा और विश्वमैत्रीके संदेश रूप निष्कर्ष पाये जाते हैं। आदर्श मानवता, पुनित परोपकारिता, सुयोग्य साधुतायुक्त मौलिक मार्गदर्शिता आपके कीर्ति कलेवरको न खत्म होने देगी; न अपरिमित विद्वत्तापूर्ण, प्रतिभा सम्पन्न, शासन प्रभावकतासे निबद्ध अ-क्षर अक्षरदेहको विस्मृतिके गर्भमें विलीन होने देगी। पू. श्री चरण विजयजी महाराजजी आपके प्रति हार्दिक उद्गार अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं- “साकार धर्म, सशरीर ज्ञान और मूर्तिमान चारित्र यदि कहीं एक स्थान पर ही देखने हों तो वे पूज्य श्री आत्मारामजी म.सा. में ही दृष्टिगोचर होते हैं । ८९ इसीका मूर्तिमंत स्वरूप साकार हो उठता है आपके कार्यो में, यथा-नामशेष होती हुई आदर्श संस्कृतिके जाज्वल्यमान-भव्य प्रतीक रूप जिर्ण-शीर्ण जिन प्रसादोंकी रक्षा हेतु श्री संघको प्रेरित किया तो उनके अभाव स्थानोंमें या क्षेत्रो में नूतन चैत्य-निर्माणके लिए आह्वान किया, जो तत्कालीन परिस्थितिमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। अज्ञानांधकारमें भटकनेवाले अपने निराधार जैन समाजको नेत्रांजनके लिए एक क्रान्तिकारी कदम उठाया, जो प्रायः आपका स्थान महर्षि श्री सिद्धसेन दिवाकरजी म.सा.की श्रेणिमें स्थापित करता है। जैसे श्री दिवाकरजी म.सा.ने तत्कालीन परिस्थितियों के कारण एक क्रान्तिकारी कदम स्वरूप, परंपरागत प्राकृतमें रचानेवाले जैन वाङ्मयको, संस्कृतमें रचनेका प्रारम्भ किया; ठीक, वैसे ही आपने भी, संस्कृत-प्राकृत भाषाकी प्रकांड-पांडित्यपूर्ण विद्वत्ता होने परभी, परिस्थितिके अनुरूपजब संस्कृत-प्राकृत भाषा का अध्ययन प्रायः नामशेष हो रहा था तब-लोकभाषा हिन्दीमें अपनी समस्त साहित्यिक रचनायें की और जन समाज एवं जैन समाजको प्राचीन साहित्यकी उपादेयता समझाने हेतु अपूर्व-अहमियत-प्रयत्न किये: जो अपने आपमें संपूर्ण सफल रहें और जिससे विश्व मानव मस्तिष्ककी अनेक गलतफहमियोंका भी नीरसन हुआ। जैनधर्म-जैन सिद्धान्त और जैन समाजका भव्य ललाट गौरवसे उन्नत बन सका। फल स्वरूप ज्ञान प्राप्त समाज जड़तासे मुक्त होकर संभ्रान्त अवस्थासे निर्धान्त वातावरणको पाकर अभ्युदयकी राह पर अग्रसर हुआ। "श्री आत्मारामजीने देखा कि संसारका त्याग करना-धन दौलत पर लात मारकर साधु-वेश धारण करना कठनि नहीं किन्तु साधारण साधुओंके लिए झूठे साम्प्रदायिक बंधनोंको तोड़ना या तुड़वाना दुष्कर हैं............संन्यास मार्गमें प्रविष्ट होते ही साम्प्रदायिक बन्धनोंको आभूषण मानने लग जाते हैं, चाहे वे बंधन उनकी साधनाके लिए हानिकारक ही क्यों न हो........साधु होने पर मिथ्या (71) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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