SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो विश्व वल्लभ बनकर आपके भावि उत्तराधिकारी बननेका सौभाग्य लिए हुए थे; एवं जो हर्षविजयजी म.के शिष्य और श्री लक्ष्मीविजयजी म.के प्रशिष्य थे। फिरभी आप स्थितप्रज्ञ रहकर कार्यान्वित बने रहें। अहमदाबादके चातुर्मास बाद आपने पालीताना पधारकर मुख्य-मुख्य श्रावकोंकी सम्मति और सहयोगसे वहाँके पैंतीस प्रभावशाली-चित्ताकर्षक जिनबिम्बोंकों एवं अहमदाबादादि विभिन्न स्थानोंमें से कुल १५० प्रतिमाजी पंजाबके विभिन्न नगरोंके लिए भेजे, जो आपकी गुजरात यात्राकी उत्तम उपलब्धि मानी जा सकती हैं। आपके इस विहार दौरान सुरतके चातुर्मासमें आपके कलाकार-रूप व्यक्तित्वमें निखार आता है। आपकी कल्पनाके पंख उड़ान भरने लगते हैं और मंझिल तय होती है “जैन-मत-वृक्ष"के अनूठेधार्मिक, ऐतिहासिक, राजकीय वृत्तोंको मूर्तिमंत करनेवाली उत्तमोत्तम कलाकृतिके रूपमें। जिस कालमें धार्मिक-ऐतिहासिक वृत्तोंकी छान-बीन या परंपराओं के चित्रण नगण्य थे अथवा जन मानसकी वृत्ति ही उस ओर नहीं थीं, वहाँ ऐसी कल्पना युक्त रंगीन कलाकृतिका प्रस्तुतीकरण वाकई अमूल्य और अनुपमेय था। ज्ञानोद्धार अर्थात् ज्ञानभक्ति---ज्ञानोपगरण और ज्ञानके प्रति आपके अंतरका हार्दिक सम्मान दृष्टिगोचर होता है, जब आप खंभात-पाटण-महेसाणा आदि धर्म-स्थानों के प्राचीन ग्रंथ भंडारोंका निरीक्षण करते हए अघाते नहीं। वहाँकी प्राचीनतम हस्तलिखित प्रत एवं पुस्तकों के जिर्णोद्धार के लिए महेसाणामें कायमी फंड़योजना, ग्रंथोका पुनर्लेखनादि कार्य उनके अनन्य ज्ञान प्रेमके प्रतीक हैं। पाटण ज्ञानभंडारोंके पुनरुद्धारका कार्य शिष्यों-प्रशिष्योंको सौंपकर इस दिशामें नया कदम उठाया। 'स्व' उन्नतिके साथ 'पर'का भी खयाल आपके हृदय कमलमें था। 'उपासक दशांग' सूत्रके संपादक और अनुवादक-रोयल एशियाटिक सोसायटीके मानद सचीव डॉ. होर्नलकी शास्त्रीय पदार्थों आदिके बारे में संदिग्धता और शंकाओंका स्पष्ट, शास्त्राधारित एवं तर्क बद्ध सचोट प्रत्युत्तर रूप मार्गदर्शन देकर उनका हार्दिक प्रेम संपादन किया था; फल स्वरूप उन्होंने अपना ग्रंथ आपके नाम, सुंदर प्रशस्ति रूप पुष्प परिमल सह समर्पित किया। ५२ अहमदाबादमें श्री जेठमलजी रिखकी 'समकित सार' पुस्तकके प्रत्युत्तरमें “सम्यक्त्व शल्योद्धार "की रचना की; तो सुरतमें हुक्म मुनिके आगम विरुद्ध 'अध्यात्म सार' पुस्तकको प्रश्नोत्तर रूप पड़कार फेंककर भारत वर्षके विद्वानों द्वारा उसे अमान्य ठहराया। पाटणमें तीन स्तुतिवालोंको ललकारते हुए “चतुर्थ स्तुति निर्णय"की रचना की। इनके अतिरिक्त आराधना हेतु “बीस स्थानक पूजा", "अष्ट प्रकारी पूजा", "स्नात्रपूजा" आदिकी रचना की। गद्य रचनाओंमें आपके अजेय वादित्वके दर्शन होते हैं तो पद्य रचनाओंमें समर्पित भक्त हृदयके भाव विशिष्ट संगीतज्ञकी कवित्व शक्ति द्वारा प्रस्फुटित होते अनुभूत होते हैं। शास्त्रीय चर्चा-जैन सिद्धान्तोंकी सिद्धि एवं पुष्टि---बिकानेर नरेश और उनके संन्यासी महात्माके दिल---जैन दर्शनकी नींव रूप स्याद्वाद एवं अनेकान्तवादकी व्यापकता और प्रमाणिकताको लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy