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________________ स्नेहशील पिता उनके लिए अनमोल उपहार लिए उनकी सुध लेनेके लिए वापस आये हों।प्रतिदिन विभिन्न स्थानोंमें विचरण और प्रभावक प्रवचनों रूपी मार्गदर्शनके कारण पूर्वके श्रावकोंकी आस्था दृढीभूत हुई, कई नये श्रावक और साधु भी बने। पंजाबके इस पाँच वर्षके विचरणने पूर्वके अपूर्ण कार्यको वेगवान बनाते हुए शुद्ध सत्यधर्मके प्रचार-प्रसारका शंख फूंककर सोयेको जगाया, जागेको उठाया-आगे कदम बढ़ानेको प्रेरणा की। प्रथम चातुर्मासोपरान्त लुधियानामें फैली जीवलेवा-ज्वरकी बिमारीने आपके शिष्य श्री रत्नविजयजी म.का भोग लिया और आपको भी चपेटा देकर बेहोश बना दिया। घबराहटमें चितित श्री संघ द्वारा आपको अंबाला ले जाया गया। चिकित्सा अनंतर आप स्वस्थ बने और चारित्र धर्ममें लगे दोषका प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध बने।५० साहित्य सृजन---उन दिनों ज्ञान-शून्य-भ्रान्त जनताके मनोमालिन्यकी शुद्धिके लिए अपनी लेखिनीको मुखरित करते हुए, मौखिक उपदेशकी अपेक्षा बहुव्यापक एवं चिरस्थायी बनने योग्य उपदेशको अक्षरदेह रूप “नवतत्व संग्रह”, “जैन तत्त्वादर्श" जैसे ग्रंथोकी रचनाको प्रकाशित करवाया-जो जैन धर्मके वास्तविक मूल सिद्धान्तोंको समझानेमें अत्युपयोगी सिद्ध हुए। आर्य समाज-संस्थापक श्री दयानंद सरस्वतीजीके 'सत्यार्थ प्रकाश में की गई जैनधर्मकी झूठी प्रतारणाके प्रत्युत्तर रूप 'अज्ञान तिमिर भास्कर' ग्रन्थकी रचना की। पंजाबके प्रभु-प्रतिमा-पूजन विधिसे अनभिज्ञ जैनों के लिए हिन्दीमें 'सत्रहभेदी पूजा' की रचना की। __ विशुद्ध जैन परंपरामें दीक्षित होनेके पश्चात् आपने पंजाबमें अंबाला शहर, लुधियाना, जंडियाला, गुजरांवाला, होशियारपुर-में पाँच चातुर्मास करके और अन्य नगर-ग्रामोंमें विचरण करके जो क्रान्तिकारी धार्मिक आंदोलन चलाया उसमें आशातीत सफलता प्राप्त की। प्रभु पूजा-प्रभावनादिके . निरंतर प्रचारसे सहस्त्रों श्रावक-श्राविकाके दिलमें शुद्ध श्रद्धा जागृत करके मानों वर्षों से रूठी जैनश्रीको पुनः अनुपम हृदय सिंहासन पर स्थापित किया। इस तरह कार्यसिद्धि करके अनेक नवदीक्षित साधुओंके छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रदान करवाने के लिए, इसके अधिकार-प्रदाता-गणि श्री मुक्ति विजयजी म.सा. अहमदाबादमें बिराजित होने से, पुनः गुजरातकी ओर चल पड़े। हस्तिनापुरादि तीर्थयात्रा करते हुए बिकानेर चातुर्मास करके जोधपुरादि स्थानोमें परिभ्रमण करते करते गुजरातकी ओर विहार किया। विभिन्न लाभालाभयुक्त मारवाड़-गुजरातकी यह अंतिम विहार-यात्रामें- बीकानेर, अहमदाबाद, सुरत, पालीताना राधनपुर, महेसाणा, जोधपुर-के सात वर्षावासमें नये कीर्तिमान स्थापित किये, तो साथमें हृदय हिलादेनेवाली बड़ी भारी चोटभी खाई। लेकिन वीतराग पथका यह पथिक नम्रता और समतासिक्त स्थित-प्रज्ञताके साथ कर्तव्य पथ पर आगे कदम बढ़ाता ही गया। गुजरात प्रवेश पूर्वही पालीमें श्री लक्ष्मीविजयजी म.का और गुजरातसे प्रस्थान पश्चात् दिल्हीमें आपके प्रिय प्रशिष्य श्री हर्षविजयजी म.का. कालधर्म हो गया। तो राधनपुरमें बड़ौदाके लाडीले नवयुवक श्री छगनभाईने आपके चरणों में जीवन समर्पित किया-छगनभाई बन गए मुनि वल्लभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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