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________________ अनेक जैन-जैनेतर ग्रन्थोंके संदर्भ सहित विचार-विमर्श करके अवर्णनीय प्रसन्नतासे भर दिए। ५३ तो जोधपुर नरेशके भाई प्रतापसिंहजीको “जैनधर्ममें आस्तिकता-नास्तिकता और मोक्षका स्वरूप” एवं जैनधर्मके 'अनीश्वरवाद का नीरसन-विविध शास्त्राधारित खंडन-मंडन युक्त विशद विवेचन करके प्रभावित करते हुए आपके सत्य और शुद्ध विचारोंका स्वीकार करवाया; और लिंबडी नरेशके संस्कृतज्ञ विद्वान पंड़ितोंसे संस्कृतमें और लिंबडी नरेशको सरल हिन्दी भाषामें गंभीर, मार्मिक, तलस्पर्शी वाणीसे शास्त्रोक्त संदर्भ सहित 'ईश्वर-सृष्टि-कर्ता का विरोधकरके, ईश्वरको ज्ञाता रूपमें सिद्ध करके उनके मनका उचित समाधान किया। आपकी परम मेधा और अपूर्व दर्शनिक पांडित्यके चमकार हम पग पग पर पाते हैं। जीवनका अनमोल उपहार-(सूरिपद प्राप्ति)---इस यशोमंदिरके स्वर्णिम शिखर सदृश उत्तमोत्तम यश प्रदाता अवसर पालीतनाके चातुर्मास पश्चात् अपरंपार उल्लास बीच संपन्न हुआ। यतियों के वर्चस्वको .. चौपट करनेवाले, अजयेवादी, तार्किक शिरोमणि, बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न-जैन संघकी विभूतिचुंबकीय व्यक्तित्वके स्वामी, महामना मुनिराज श्री आनंदविजयजी महाराजके नम्र और निर्मल अंतःकरणकी सम्पूर्ण अनिच्छा होते हुए भी यतियों के रहे-सहे वर्चस्वको समाप्त करने हेतु; यति समाजकी चुनौतिके प्रत्युत्तर रूप-विकट परिस्थितिमें श्री संघकी मान-प्रतिष्ठा स्थिर रखने हेतु; एवं ढाईसौ वर्षोंसे सूरि-सिंहासनकी रिक्तता पूर्ति हेतु की गई भारत वर्षके समस्त जैन-संघोकी श्री पंचपरमेष्ठि में तृतीय स्थान स्थित सूरिपद स्वीकारनेकी-हार्दिक विनतीको अवधारण करते हुए धर्मवीर-ज्ञानवीर-चारित्रवीर-आपने, यशकीरिट कलगी स्वरूप, संविज्ञ श्वेताम्बर आम्नायके महानउत्तरदायित्वपूर्ण आचार्यपद गौरवको गौरवान्वित करनेका श्रेय प्राप्त किया, मानों सूरिपदका ढ़ाई सदियोंसे प्रसुप्त पुण्य जाग उठा। १६ साधु समाजका विलुप्त अधिकार पुनः प्रकाशित हो उठा। आपने देखा कि समाजके उद्दीप्त उल्लासके जोशको थोड़े समयके लिए भी रोक पाना अति दुष्कर है, और पूर्वाचार्यों में भी बिना योगोद्वहनके पदस्थ होनेकी एक परंपरा प्राप्त होती है। अतः आप आचार्यपद योग्य योगोद्वहन किए बिना ही शासन सम्राटका प्रतीक सूरिराजका ताज़ धरकर मुनिराज श्री आनंदविजयजी से श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी नामाभिधान भगवान महावीर स्वामीजीकी पट्ट परंपराके तिहत्तरवें स्थानको शोभायमान करने के लिए भाग्यवान बने और पश्चात्वर्तियोंको भाग्यवान बनने-बनवाने के दरवाजे खोल दिए। (हाँलाकि आपने अपने आप किसी शिष्यको आचार्य पद नहीं दिया) इन्हीं भावोंको श्री जयभिक्खुजी इस तरह व्यक्त करते हैं. “इस सूरिपद पर अन्य वातोंकी तरह यति और श्री पूज्योंने कब्जा कर लिया था ।........प्रतिष्ठा, योगोद्वहन, दीक्षा प्रदान परभी उनकी नागचूड़ थी । वह तभी टूट सकती है जव प्रतिष्ठा करा सके, योगाद्वहन करा सकें, दीक्षा दे सकें ऐसे आचार्य संविज्ञ साधुओंमें हों । इस कारणसे प्रवल पुरुषार्थी श्री आत्मारामजी महाराजने अगवानी की। वि.सं. १९४२में पालीतानामें श्री संघ समक्ष आचार्य पद लेक हिम्मतसे जाहिर किया कि आगमके योगोद्वहन किये बिना भी विद्वान और चारित्रशील साधु आचार्यपद प्राप्त कर सकते हैं । उस कालमें यह एक महान क्रांति थी ।"५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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