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________________ संबंध सिद्ध होता है ।........जैनियोंका यह मंतव्य है कि, जगत अनादि है, ईश्वर-भगवान हमारा सन्मार्गदशी (रहनुमा) और दुर्गतिपातसे रक्षक है ।.......धर्मका परम पुरूषार्थ यह है कि जगत्वासी जीवको नाना गतिके जन्म मरणादि शारीरिक और मानसिक दुःखोंका नाश करके परमपद-सिद्धपदमें अर्थात् ईश्वर पदमें प्राप्त करता है।"५० इस धर्मकी आराधना दो प्रकारसे होती है-पंच महाव्रत पालन रूप सर्वविरति याने साधुपनेसे और द्वादश पालनरूप देशविरति या सम्यग् दृष्टि अविरति गृहस्थ धर्माचरणसे। श्री तीर्थंकर भगवंत अपने तीर्थंकर नामकर्म रूप पुण्य कर्मोदयसे प्राप्त केवलज्ञानमें भासन होनेवाले भव निस्तारक धर्मामृत, पियूषगिरासे प्रवाहित करते हैं, जिसे श्री गणधर भगवंत-क्रोडों की क्षुल्लक रौप्य मुद्रिकाओंको एक कोहिनूर हीरे में समाविष्ट करनेकी चेष्टा स्वरूप, उस श्रुत सागरको---सूत्र रूप गागरमें समाविष्ट कर देते हैं। वही गागर-सूत्रसमूहसन्दूक स्वरूप द्वादशांगी की रचना-गणिपिटक कहलाती है । इसकी अगाधता आश्चर्यकारी है-यथा- ५१,०८,८४,६२१.१/२ श्लोकोंका एक पद होता है और ३,६४,४६००० पद प्रमाण एक अंग बनता है। ऐसे ग्यारह अंग सूत्र, और १६३८३ हस्तिप्रमाण मषिपूंजसे लिखा जाय उतना विस्तृत बारहवां 'दृष्टिवाद' अंग होता है। भरतैरावत क्षेत्रमें इस अवसर्पिणी काल प्रभावसे बुद्धि-याददास्त-हानिके कारण शनैः शनैः लुप्त होते होते संक्षिप्त बनते जाते हैं। साम्प्रतमें सार स्वरूप केवल ६,५९,३३० श्लोक प्रमाण पैंतालीस आगम स्वरूप साहित्य अवशिष्ट रह पाया है, जिनके सहारे भवभ्रमणके हेतुरूप जुल्मगार कर्मराजाकी कैदसे मुक्त होनेके लिए यत्किंचित् अमोघ उपाय प्राप्त हो सकते हैं। जबकि अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल प्रभावसे विमुक्त-विशिष्ट क्षेत्र महाविदेहमें उपरोक्त सूचित संपूर्ण श्रुतसागर सदा-सर्वदा-सर्व विजयोमें स्थिर रूपसे उपलब्ध होता है। जिससे आराधक आत्मा त्रिकालाबाधित आराधना करके आत्मकल्याण कर सकते हैं। अतएव निष्कर्ष यह निवेदित है कि, द्रव्य ही भाववृद्धिका कारण बनता है इससे जैसे द्रव्य शाश्वत है वैसे ही भावगत जैनधर्म शाश्वत है। जैन धर्म की ऐतिहासिक परम्परा : अनादिकालीन जैनधर्मके शाश्वत स्वरूपको ज्ञात कर लेनेके पश्चात् उसकी ऐतिहासिक परम्परा जानने की उत्कंठा होना सहज स्वाभाविक है। ढाई द्वीप स्थित पाँच महाविदेह क्षेत्रकी (प्रत्येककी चार चार) बीस विजयोंमें विचरण करते हुए एवं उत्कृष्ट या मध्यमकालमें विचरण किये हुए तीर्थंकरोंके जीवन-कवन संबंधित साहित्य जैन ग्रन्थ-शास्त्रोमें आलेखित है। वर्तमान कालमें पाँच महाविदेह क्षेत्रकी एक सौ साठ विजयोमेंसे बीस विजयोमें-प्रत्येकमें एक एक श्री सिमंधर, श्री युगमंधर, श्री बाहु, श्री सुबाहु, श्री सुजात, श्री स्वयंप्रभ, श्री ऋषभदेव, श्री अनंतनाथ, श्री सुरनाथ, श्री विशालदेव, श्री व्रजधर, श्री चंद्रानन, श्री चंद्रप्रभ, श्रीभजंगदेव, श्री ईश्वरनाथ, श्री नेमिप्रभ, श्री वीरसेन, श्री महाभद्र, श्री देवयशा, श्री अजितनाथ१ -स्वनाम धन्य बनानेवाले बीस तीर्थंकर विचरण (22) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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