SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छः सालकी स्त्री अनेक बालकोंको एक साथ प्रसूत करके महाक्लेशका अनुभव करेगी। इस अवसर्पिणीके वर्णनसे प्रतिलोम क्रमसे उत्सर्पिणीके छः आरोंका स्वरूप ज्ञातव्य है । उत्सर्पिणी अवसर्पिणीकालके बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण एक कालचक्र बनता है। यथा- “ एक अवसर्पिणीकाल अर्थात् जो सर्व सारभूत वस्तुओंका क्रमसे नाश करता चला जाता है जिसके एं हिस्से हैं, तथा उत्सर्पिणीकाल अर्थात् सर्व अच्छी वस्तुओंको क्रमसे वृद्धिमान करता चला जाता है........यह अवसर्पिणी अरु उत्सर्पिणी मिलकर दोनोंका एक कालचक्र बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है। ऐसे कालचक्र अनंत पीछे व्यतीत हो गए हैं और आगेको व्यतीत होयेंगे........इस तरह अनादि अनंतकाल तक यही व्यवस्था रहेगी ।४८ यह स्वरूपालेखन केवल भरतैरावत क्षेत्राश्रयी किया गया जहाँ जिन धर्माराधना पूर्णिमा और अमावास्या के चंद्रकलाओं की सदृश वृद्धि हानि होती रहती है। लेकिन महाविदेह क्षेत्रकी सर्व विजयोंमें धर्माराधनायें निरंतर होती रहती हैं तीर्थंकरके विरहकालमें भी उनके पथ-प्रदर्शक केवली भगवंत एवं साधु-साध्वीके निर्देशन में आराधना होती रहती है। वहाँ सदा-सर्वदा मोक्ष मार्गकी आराधना और मोक्ष प्राप्ति होती ही रहती है। काल प्रभावसे ही तथा प्रकारके परिणाम प्राप्त होते रहते हैं। अतएव निष्कर्ष यह प्राप्त होता है कि जैन धर्म अनादिकालसे अविच्छिन्न रूपसे प्रवाहबद्ध स्वरूपसे नित्याराधित है और रहेगा। श्री स्कंदक परिव्राजकके साथ प्रश्नोत्तर समय भगवान महावीरके उद्गार स्पष्ट है-यथा " कालओणं लोए ण कयावि न आसी, न कयावि न भवति, न कयावि न भविस्सति; भविंसु व भवति य भविस्सइ य, धुवे, णितिए, सासते, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए णिच्चे णत्थि पुण से अंते । से त्त दव्वओ जीवे सअंते, खेत्तओ जीवे स अंते, कालओ जीवे अनंते, भावणं जीवे अनंता णाण, दंसण, चरित, गुरुलहु, अगुरुलहु पज्जत्ता.......एवं खलु चव्विहा । सिद्धि पज्जतादव्वओ सिद्धि सअंता, खेत्तओ सिद्धि सअंता, कालओ सिद्धि अणंता, भावओ सिद्धे अणंता कालओ सिद्धि अणते, भावओ सिद्धे अनंते । ४९ (६) भावगत शाश्वतता यथानाम तथा गुणानुसार 'जैन' शब्द - निष्पन्न भावको ग्रहण करें तो मोहनीयादि कर्म सेनापतियों के अनंत कर्मकटकको मानवजीवन रूपी रणक्षेत्रके विविध व्यामोह रूप व्यूहचक्रोंको भेदनेके लिए यम-नियम- योगादि साधनास्त्रोंसे और तप-जप ध्यानादि विभिन्न आराधनायुधों की सहायतासे अथक अनवरत अखंड परिश्रम करके विशिष्ट आत्म-विजय संपन्न - विजयशील- जिनेश्वर वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रकाशित और प्रसारित धर्म जैनधर्म है जो धर्मसाधककी आत्माके राग-द्वेषादि दूषणोंको दूर करनेवाला एवं वीतरागादि गुण प्राप्तिके पथको प्रदर्शित और प्ररूपित करनेवाला है । यह जीव सृष्टि जैसे कालगत अनादि अनंतकालीन है वैसे ही उन जीवोंकी भागवत आराधना साधना-उपासना स्वरूप धर्मभी अनादि अनंत स्वयं सिद्ध ही है यथा मनुष्यमें धर्मरूप गुण वास्तवमें है कि नहीं ? इस प्रश्नका प्रत्युत्तर देते हुए आचार्यप्रवर श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.सा. लिखते है "धर्म रूप गुण मनुष्यमें वास्तविक है, क्योंकि धर्म जो होता है सो धमका स्वरूप ही होता है-जैसे मिसरीकी मिठास इस 'धर्म' पदके कहनेसे ही वास्तविक 'धर्म-धर्मी का अविष्वग् भाव Jain Education International 21 For Private & Personal Use Only *****.. www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy