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________________ कर रहे हे और मानव जन्मका सार्थक्य करानेवाले आध्यात्मिक अवबाध रूप धर्म प्ररूपणा करके असंख्य आत्माओं को भवनिस्तारिणी आराधना निरूपित करनेवाली अमोघ-देशनासे लाभान्वित कर रहै हैं। इसी तरह पाँच भरत-पाँच ऐरावत क्षेत्रमें प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालके चौबीस तीर्थंकर भी अपने 'तीर्थंकर नामकर्म 'रूप पुण्य-भुक्ति करते हुए स्व-परात्म कल्याणमयी आत्मोद्धारक-मधुर गिरा प्रवाहको प्रवाहित करते हैं, जिस प्रशस्त मार्गका आराधन अनेक भव्य जीवात्माको निस्तार (भवसे) कराने में सहायक बनता है। वर्तमानकालीन पंचम आरे में इस जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें चरम तीर्थपति श्री महावीरोपदिष्ट धर्माराधना प्रर्वतमान है। जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें अनादि कालसे प्रवहमान, अनंत कालचक्रोंके व्यतीत होते होते वर्तमान अवसर्पिणी कालकी तीर्थंकर परम्परा-अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम में कुछ न्यून काल प्रमाण-अति दीर्घ विरहकाल पश्चात्-तृतीय 'सुषम-दुःखम' नामक आरेके चौर्यासी लक्ष पूर्व और नवासी पक्ष शेष रहते हुए प्रारम्भ होती है । प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जीवन • चरित्र --- अषाढ़ कृष्णा चतुर्थीके दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें चंद्रका योग आने पर 'सर्वार्थसिद्ध' नामक अनुत्तर देवलोकसे च्यवकर सातवें कुलकर श्री नाभिकी युगलिनी मरुदेवाकी रत्नकुक्षीमें प्रथम तीर्थपतिका चौदह महास्वप्न' सूचित अवतरण हुआ, एवं चैत्र कृष्णा अष्टमीको गगन मंडलमें-ज्योतिषशास्त्रानुसार सर्वग्रह सर्वोच्च स्थान पर आते ही श्री ऋषभदेव भगवंतका जन्म हुआ जिससे तीनों लोक आलोकित हुए, साथ ही चौर्यासी लक्ष योनिकी सकल जीव राशिको अवर्णनीय सुखानंदका आह्लाद मिला। छप्पन दिक्कुमारिकाओंने एवं सौधर्मेन्द्रादि चौसठ इन्द्रान्वित असंख्य देव-देवियोंने अपने अपने आचारानुसार भगवंतका बड़े ठाठसेभक्तिभाव भरपूर-जन्मोत्सव किया। पिता-नाभि कुलकरने भी यथायोग्य जन्मोत्सव किया। ८४ लाख पूर्व वर्षकी आयुमर्यादा युक्त, ५०० धनुष प्रमाण तनुधारी, सुवर्णवर्ण-सुंदरसौष्ठव युक्त वपुवान् श्री ऋषभदेवका, यौवनवयसे भावित होने पर इन्द्रों एवं इन्द्राणियों द्वारा सुमंगला और सुनंदा नामक दो युवतियोंसे, इस अवसर्पिणी कालका-युगला धर्म निवारण के प्रतीक रूप-सर्व प्रथम विवाह किया गया। तबसे भरतक्षेत्रमें लग्न प्रथाका प्रादुर्भाव हुआ। छ लाख पूर्व तक उत्तमोत्तम सुख-समृद्धि विलसते हुए आपके सौ पुत्र और दो पुत्रियोंका परिवार हुआ। इनके अतिरिक्त भी अनेक पौत्र-प्रपौत्रादिका परिवार भी प्राप्त हुआ। बीस लाख पूर्व वर्ष व्यतीत होने पर उन मिथुनकोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेको, उनका न्याय और रक्षण करने को, श्री नाभि कुलकरकी प्रेरणा और आदेश प्राप्त करके पुरुषाद्य-प्रजापति-प्रथम राजन् के रूपमें आपका इन्द्रादि देवों द्वारा राज्याभिषेक किया गया। उन युगलिकोंके निवास योग्य १२यो. x ९यो. की विनिता' नामक नगरी-अलकापुरी सदृश सुवर्णनगरी-इंद्रकी आज्ञासे बसायी गई। उसकी सुचारु व्यवस्थाके लिए उग्र, भोग, राजन्य एवं क्षत्रिय कुलोंकी स्थापना (23 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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