SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशालता नहीं, लेकिन काँटे-कंकरोंको धकेलती, निर्मल नीर प्रदान करती, खेतोको सिंचती, जरूरत पड़ने पर कभी तुफानी बनती हुई, फिरभी, शांतिपूर्वक सागरको मिलनेवाली नदीकी मीठी प्रबलता है। एक ही तीरसे प्रतिस्पर्धीको हरानेकी नहीं लेकिन एक के बाद एक तीरोंको छोड़कर वादीको सकपकानेकी शूरवीरता है।"९६ आपकी साहसिकताके परिणाम स्वरूप जैन समाजकी वर्तमान उन्नतिका चित्रण करते हुए 'श्री विजयानंदावतार' काव्यमें जैन कविने अंकित किया हुआ चित्रण“चहुँ ओर सुधारस धार बही, मलयानिल मंद बयार बही; ___मधुमय सुवसंत प्रचार हुआ, आनंद विजय ! आनंद विजय ! पतितोंका प्रभु उत्थान किया, मृतकोंको जीवनदान दिया; ___ गण प्राण पुनः संचार हुआ, आनंद विजय ! आनंद विजय ! फिर जैन धर्म उद्धार हुआ, प्रभुका अनंत उपकार हुआ; यह भारत स्वर्गागार हुआ, आनंद विजय ! आनंद विजय !"५७ आपकी साहसपूर्ण शेरगर्जनासे ही तो तत्कालीन मिथ्यात्व और पाखंड़, प्रपंच और कृत्रिमता-सभीमें एक साथ तफानी खलबली मच गई थी। नम्रताका परिचय देते हए पूज्य । परिचय देते हुए पूज्यजी अमरसिंहजीको विधिवत् वंदना करनेवाले इसी साहसिक वीरकी हिम्मत थी जो उनके झूठे निर्देशप्रायश्चित्त लेनेके-करने पर पूज्यजीको स्पष्ट कह देते हैं-“मैं क्यों प्रायश्चित् लूँ? आपके श्रावक मोहनलाल और छज्जूमल यदि झूठे हैं तो वे प्रायश्चित्त करें और आप झूठे हों तो आपको प्रायश्चित्त लेना चाहिए।"८ विरासतमें पायी सच्चे सैनिककी संस्कारयुक्त साहसिताके कारण आप न कभी इरना सिखे थे, न हारना जानते थे। एक बार सिरोही से आबू जाते समय रास्तेमें डाकूओंके भयसे श्रावकोंने चार सिपाही साथमें दिए। रास्ते में डाकूओंका नाम सुनते ही सिपाही दूसरे रास्तेसे जानेकी प्रार्थना करने लगे उस समय आपने उन्हें उलाहना देते हुए जोश और हिंमतका संचार किया-आगे बढ़ाया और कुनेहपूर्वक व्यवस्थित आयोजनसे साधुओंके डंडे बंदूककी तरह कंधे पर रखवाकर सैनिक दलका आभास खड़ा करके डाकुओंको भगा दिया। ऐसे साहसवीर धर्मनायक जिंदादिलीसे जीवन जी गये और औरोंको भी जिला गये। उन्हें विश्वास था कि सत्यमार्गके पथिककी बाधायें हवाके मामूली झोंकोंसे ही दूर हो जाती हैं। सत्यके प्रति प्रेम और श्रद्धायुक्त ठोस ज्ञानका साहस-ये चिंतामणी रत्न हैं जिनके सामने सर्व मुश्किलें नगण्य हैं। साहसके विद्युत् केंद्र सदश आपके सान्निध्यमें जैन समाजने अनूठी चेतना-शक्तिका अनुभव किया, श्री आत्मारामजी महाराजका जीवन और आदर्श चरित्र, सत्यनुरागी, सेवामय, सम-शम-श्रम का ज्वलंत उदाहरण और सच्चे श्रमणका प्रतिक हैं। विद्या ददाति विनयम्- “एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो"-१९ इस आगमाधारको सर्वदा हदयस्थ रखनेवाले प्रकांड पांडित्य युक्त समर्थ एवं प्रतिष्ठित विद्वान पूज्य सुरीश्वरजीके अंतःस्तलका कोने कोना अहंकाररहित व विनयसे ठसाठस भरा हुआ था। वे विशेष रूपसे यह ध्यान रखते थे कि उनकी लेखिनीसे ऐसा कोई आलेखन कभी न हों जो भ. श्री (74) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy