SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि ही होता है । यह गुणस्थान ऐसी गिरने की अवस्थारूप है; सम्यग्दर्शन से अज्ञान-मोह में अथवा मिथ्यात्व में गिरनेरूप है। जब गिरने ही लगे तब गिरने में कितनी देर ? इसलिए यह गुणस्थान क्षणमात्र का है। ‘उपशम' सम्यकत्व से गिरनेवाले के लिए ही यह गुणस्थान है। (३) मिश्र गुणस्थान . सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व इन दोनों के मिश्रणरूप आत्मा के विचित्र अध्यवसाय का नाम मिश्र गुणस्थान है। . . . जब किसी जीव को सत्य का दर्शन होता है तब वह आश्चर्य-चकित-सा हो जाता है। उसके पुराने संस्कार उसे पीछे की ओर घसीटते हैं और सत्य का दर्शन उसे आगे-बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसी दोलायमान अवस्था थोड़े समय के लिए ही होती है। . बाद में या तो वह मिथ्यात्व में जा गिरता है अथवा सत्य को प्राप्त करता है । इस गुणस्थान .. में 'अनन्तानुबन्धी' कषाय न होने के कारण उपर्युक्त दोनों गुणस्थानों की अपेक्षा- यह गुणस्थान ऊँचा है । परन्तु इसमें विवेक की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती, सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व का मिश्रण होता है अर्थात् सन्मार्ग के बारे में श्रद्धा भी नहीं और अश्रद्धा भी नहीं ऐसी डांवाडोल स्थिति होती है अथवा सत् और असत् दोनों ओर झुकने वाली या दोनों के बारे में मिश्रित जैसी श्रद्धा होती है। (४) अविरतिसम्यग्दृष्टि विरति बिना के सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) को अविरति सम्यग्दृष्टि कहते हैं। सम्यक्त्व के स्पर्श के साथ ही भवभ्रमण के काल की मर्यादा नियत हो जाती है। अत: आत्मविकास की मूल आधारभूमि यह गुणस्थान है। . इस प्रसंग पर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के बीच का अन्तर भी जरा देख लें । मिथ्यादृष्टि में धार्मिक भावना नहीं होती। सब प्राणियों के साथ एकता अथवा समानता का अनुभव करने की सवृत्ति से वह शून्य होता है। दूसरे के साथ का उसका सम्बन्ध स्वार्थ का अथवा बदला लेने का ही होता है। सम्यग्दृष्टि धार्मिक-भावनाशील और आत्मादृष्टियुक्त होता है। आत्मकल्याण की दिशा में वह यथाशक्ति प्रवृत्त रहता है। जैसी मेरी आत्मा है, वैसी ही दूसरे की भी है - ऐसी उसकी श्रद्धा होती है। आसक्तिवश अपना स्वार्थ साधने के लिए यदि वह दूसरे के हित का अवरोध करने का दुष्कृत्य शायद करे तो भी यह अनुचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy