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________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,..... २८९ है ऐसा उसकी अन्तरात्मा में चुभा करता है । इसके लिए उसे पश्चात्ताप भी होता है । काम क्रोधादि दोष और पापाचरण कम हों ऐसी उसकी मनोभावना होने से तदनुसार बरताव वह अपनी शक्ति अनुसार रखता है । इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि धार्मिक दृष्टि से जो पाप समझा जाता है उसे पाप ही नहीं समझता । भौतिक सुख की प्राप्ति के पीछे वह मस्त हो जाता है और इसके लिए उचित-अनुचित कोई भी मार्ग ग्रहण करने में उसे पाप और पुण्य का भेद ग्राह्य नहीं होता। वह पापमार्ग को पापमार्ग न समझकर इसमें क्या ?' ऐसी स्वाभाविकता से उसे ग्रहण करता है। मिथ्यादृष्टि यदि किसी का भला करता हो तो वह स्वार्थ, पक्षपात अथवा कृतज्ञता के कारण ही करता है, जबकि सम्यग्दृष्टि इनके अतिरिक्त स्वार्पणभावना के सात्त्विक तेज से भी सम्पन्न होता है। उसमें अनुकम्पा एवं बन्धुभाव की व्यापक वृत्ति होती है। यह दशा विकासक्रम की चतुर्थी भूमिका किंवा चतुर्थ गुणस्थान है, जिसे पाकर आत्मा पहले पहल आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करती है। इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि यथार्थ (आत्मस्वरूपोन्मुख) होने के कारण विपर्यास रहित होती है। जिसको जैनशास्त्र में सम्यक्त्व कहा है। चतुर्थी से आगे की अर्थात् पञ्चमी आदि सब भूमिकाएँ सम्यग्दष्टि वाली ही समझनी चाहिए; क्योंकि उनमें उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टि की शुद्धि अधिकाधिक होती जाती है। चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपदर्शन करने से आत्मा को अपूर्व शान्ति मिलती है और उसको विश्वास होता है कि अब मेरा साध्य विषयक भ्रम दूर हुआ, अर्थात् अब तक जिस पौद्गलिक व बाह्य सुख को मैं तरस रही थी, वह परिणाम विरस, अस्थिर एवं परिमित है; परिणाम सुन्दर, स्थिर व अपरिमित सुख स्वरूपप्राप्ति में ही है। तब वह विकासगामी आत्मा स्वरूप-स्थिति के लिए प्रयत्न करने लगती है। (५) देशविरति ___मोह की प्रधान शक्ति दर्शनमोह को शिथिल करके स्वरूप-दर्शन कर लेने के बाद भी, जब तक उसकी दूसरी शक्ति चारित्र-मोह को शिथिल न की जाए, तब तक स्वरूप १. 'जिनोक्तादविपर्यस्ता सम्यग्दृष्टिर्निगद्यते। सम्यक्त्वशालीनां सा स्यात्तच्चैव जायतेऽङ्गिनाम् ।।५९६' - लोकप्रकाश, सर्ग ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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