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________________ २८७ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... आचार्य हेमचन्द्र 'योगशास्त्र' के प्रथम प्रकाश के १६ वें श्लोक की वत्ति में 'गुणस्थानत्वमेतस्य भद्रकत्वाद्यपेक्षया' इस वचन से स्पष्ट कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि को जो ‘गुणस्थान' कहा गया है वह भद्रता आदि गुणों के आधार पर (इन गुणों की अपेक्षा , से) कहा गया है। इस प्रथम 'मित्रा' दृष्टि तक भी जो नहीं पहुँचे हैं उन छोटे-बड़े सब अध:स्थित जीवों की भी गणना शास्त्रों ने मिथ्यात्व गुणस्थान में की है। इन सबकी मिथ्यात्व भूमिका को 'गुणस्थान' के नाम से निर्दिष्ट करने का कारण यह है कि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि को मनुष्य, पशु, पक्षी आदि रूप से जानता है और मानता भी है। इस प्रकार की अनेक वस्तुओं के बारे में उसे यथार्थ बुद्धि होती है। इसके अतिरिक्त शास्त्र यह भी कारण बतलाते हैं कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों में भी जीवस्वभावरूप चेतनाशक्ति, फिर वह चाहे अत्यन्त अल्प मात्रा में ही क्यों न हो, अवश्य होती है। अन्य कारण यह भी बतलाया जा सकता है कि जिस अध:स्थिति में से ऊपर उठने का है उस अध:स्थिति का, वहाँ से ऊपर उठने की शक्यता अथवा सम्भव की दृष्टि से (वह स्वयं भले ही गुणस्थान न हो, परन्तु गुण के लिए होनेवाला उत्थान तो वहीं से होता है इस दृष्टि से) गुणस्थान' के नाम से निर्देश किया गया है। (२) सासादन ' गुणस्थान यह सम्यग्दर्शन से गिरने की अवस्था का नाम है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् भी यदि क्रोधादि परम तीव्र ('अनन्तानुबन्धी') कषायों का उदय हो तो सम्यक्त्व से गिरना १. 'अनन्तानुबन्धी' (अतितीव्र) क्रोधादि कषाय सम्यग्दृष्टि को शिथिल करनेवाले (आवारक) होने से आ - सादन' कहलाते हैं। उनसे युक्त वह ‘सासादान' । सीदन्ति मम गात्राणि" आदि प्रयोगों के अनुसार ‘सद्' धातु का अर्थ शिथिल होना - ढीला पड़ना होता है। ‘सादन' इस धातु का प्रेरक कृदन्त रूप है। अतः ‘सादन' अर्थात् शिथिल करना अथवा शिथिल करने वाला। सादन' के आगे लगा हुआ आ' उपसर्ग इसी अर्थ की वृद्धि सूचित करता है। इस प्रकार ‘आसादन' से अर्थात् गिरानेवाले से अर्थात् सम्यक्त्व को गलानेवाले क्रोधादि कषाय से युक्त वह (स + आसादन) सासादन। मतलब कि ‘सासादन' गुणस्थानभूमि तीव्र क्रोधादि कषायोदयरूप होने से पतन कराने वाली है - सम्यग्दृष्टि को रफादफा करने वाली है। इस गुणस्थान का 'सास्वादन' ऐसा भी एक दूसरा नाम है। इसका अर्थ है आस्वादयुक्त अर्थात् वमन किए जाने वाले सम्यक्त्व के आस्वाद से युक्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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