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________________ २८६ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि और दूसरा स्वरूप में स्थित होना । इनमें से पहले कार्य को रोकनेवाली मोह की शक्ति जैन शास्त्र में 'दर्शन मोह' और दूसरे कार्य को रोकनेवाली मोह की शक्ति ' चारित्र मोह' कहलाती हैं । दूसरी शक्ति पहली शक्ति की अनुगामिनी है। अर्थात् पहली शक्ति प्रबल हो, तब तक दूसरी शक्ति कभी निर्बल नहीं होती; और पहली शक्ति के मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही दूसरी शक्ति भी क्रमश: वैसी ही होने लगती है । अथवा यों कहिए कि एक बार आत्मा स्वरूप- -दर्शन कर पाये तो फिर उसे स्वरूप लाभ करने का मार्ग प्राप्त हो ही जाता है । I (१) मिथ्यात्व गुणस्थान . प्राणी में जब आत्मकल्याण के साधनमार्ग की सच्ची दृष्टि न हो, उलटी ही समझ हो अथवा अज्ञान किंवा भ्रम हो तब वह इस श्रेणी में विद्यमान होता है। छोटे- छोटे कीडों से लेकर बड़े - बड़े पण्डित, तपस्वी और राजा-महाराजा आदि तक भी इस श्रेणी में हो सकते हैं, क्योंकि वास्ताविक आत्मदृष्टि अथवा आत्मभावना का न होना ही मिथ्यात्व है, जिसके होने पर उनकी दूसरी उन्नति का कुछ भी मूल्य नहीं होता । सत्पुरुष को असत्पुरुष और असत्पुरुष को सत्पुरुष, कल्याण को अकल्याण और अकल्याण को कल्याण, सन्मार्गको उन्मार्ग और उन्मार्ग को सन्मार्ग - ऐसी औंधी समझ तथा झूठे रीतरस्म और वहमों को मानना भी मिथ्यात्व है । संक्षेप में, 1 आत्मकल्याण के साधन मार्ग में कर्तव्य - अकर्तव्य विषयक विवेक का अभाव 'मिथ्यात्व' है । श्री हरिभद्राचार्य ने अपने 'योगदृष्टि - समुच्चय' नामक ग्रंथ में मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा योग की इन आठ दृष्टियों का निरूपण किया है। इनमें से पहली मैत्री लक्षणा 'मित्रा' दृष्टि है जिसमें चित्त की मृदुता अद्वेषवृत्ति, अनुकम्पा और कल्याण साधना की स्पृहा जैसे प्राथमिक सद्गुण प्रकट हाते हैं । आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि इस दृष्टि की उपलब्धि होने में ही प्रथम गुणस्थान की प्राप्ति होती है । इस प्रकार प्रथम गुणस्थान कल्याणकारक सद्गुणों के प्रकटीकरण की प्राथमिक भूमिकारूप होने पर भी उसका 'मिथ्यात्व' के नाम से जो निर्देश किया है इसका कारण यह है कि इस भूमिका में यथार्थ 'सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं हुआ होता है । इस गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की भूमि पर पहुँचने के मार्गरूप सद्गुण प्रकट होते हैं, जिससे इस अवस्था का 'मिथ्यात्व' तीव्र नहीं होता । फिर भी मन्दरूप से मिथ्यात्व विद्यमान होने से इस प्रथम गुणस्थान को 'मिथ्यात्व' कहा गया है; और साथ ही, सम्यग्दर्शन की ओर ले जाने वाले गुणों के प्रकटीकरण की यह प्रथम भूमिका होने से इसे 'गुणस्थान' भी कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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