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________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... २८५ आखिरी भूमि को पाना ही आत्मा का परम साध्य है। इस परम साध्य की सिद्धि होने तक आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी ऐसी क्रमिक अनेक अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। इन्हीं अवस्थाओं की श्रेणी को 'विकास क्रम' या 'उत्क्रांति मार्ग' कहते हैं; और जैन - शास्त्रीय परिभाषा में उसे 'गुणस्थान - क्रम' कहते हैं । इस विकास क्रम के समय होने वाली आत्मा की भिन्न भिन्न अवस्थाओं का संक्षेप १४ भागों में कर दिया - है । ये १४ भाग गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं । दिगम्बर साहित्य में 'गुणस्थान' अर्थ में संक्षेप, ओघ सामान्य और जीवसमास शब्दों का भी प्रयोग देखा जाता है । १४ गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा दूसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसरा इस प्रकार पूर्व- पूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा पर परवर्ती गुणस्थानों में विकास की मात्रा अधिक रहती है। विकास की न्यूनाधिकता का निर्णय आत्मिक स्थिरता की न्यूनाधिकता पर अवलंबित है । जैन दर्शन की चौदह गुण-श्रेणियों के नाम इस प्रकार हैं : (१) मिथ्यादृष्टि, (२) सासादन, (३) मिश्र, (४) अविरति सम्यग्दृष्टि, (५) देशविरति, (६) प्रमत्त याने सर्वविरति, (७) अप्रमत्त याने संयत (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, * (१०) सूक्ष्म सम्पराय, (११) उपशान्त मोह, (१२) क्षीण मोह, (१३) संयोगी केवली और (१४) अयोगीकेवली । सब आवरणों में मोह का आवरण प्रधान है। अर्थात् जब तक मोह बलवान् और तीव्र हो, तबतक अन्य सभी आवरण बलवान् और तीव्र बने रहते हैं। इसके विपरीत मोह के निर्बल होते ही अन्य आवरणों की वैसी ही दशा हो जाती है। इसलिए आत्मा के विकास करने में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता और मुख्य सहायक मोह की निर्बलता समझनी चाहिए । इसी कारण गुणस्थानों की विकास-क्रम गत अवस्थाओं की कल्पना मोहशक्ति की उत्कटता, मन्दता तथा अभाव पर अवलम्बित है । - मोह की प्रधान शक्तियाँ दो हैं । इनमें से पहली शक्ति, आत्मा को दर्शन अर्थात् स्वरूप - पररूप का निर्णय किंवा जड़ चेतन का विभाग या विवेक करने नहीं देती; और दूसरी शक्ति आत्मा को विवेक प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति अर्थात् अध्यासपरपरिणति से छूटकर स्वरूप - लाभ नहीं करने देती । व्यवहार में पद-पद पर यह देखा जाता है कि किसी वस्तु का यथार्थ दर्शन - बोध कर लेने पर ही उस वस्तु को पाने या त्यागने की चेष्टा की जाती है और वह सफल भी होती है। आध्यात्मिक-विकास- गामी आत्मा के लिए भी मुख्य दो ही कार्य हैं - पहला स्वरूप तथा पररूप का यथार्थ दर्शन किंवा भेदज्ञान करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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