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________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद २५९ भारतभूमि को पवित्र करती हुई त्रिवेणी के रूप में बह रही हैं, उसी प्रकार कर्म, ज्ञान, ध्यान तथा भक्ति की धाराएँ गीता में मिलकर तत्त्वजिज्ञासुओं की ज्ञानपिपासा मिटाती हुई भगवान् की ओर अग्रसर हो रही हैं । यह समन्वय गीता की अपनी विशिष्टता हैं । "१ इस कथन में बतलाया गया है कि गीता में कर्म, ध्यान, ज्ञान तथा भक्ति इन चार मार्गों का समन्वय किया गया है । इस कथन में स्पष्ट रूप से अनेकान्त की छाया है । योगी आनन्दघन कविका यह प्रसिद्ध पद " राम कहो रहमान कहो, कोउ कान्ह कहो महादेव री पारसनाथ कहो कोई ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री ॥ भाजनभेद कहावत नाना एक मृत्तिका रूप री । तैसे खण्ड कल्पनारोपित आप अखण्ड स्वरूप री ॥ " "निज पद रमे राम सो कहिए रहम करे रहमान री । कर्षे कर्म कान्ह सो कहिए ब्रह्म चिन्हें सो ब्रह्मरी ॥ " देखिए, इन दोनों में पूर्वोक्त श्लोक के समान अनेकान्त के समान अनेक विकल्पात्मक कथन हैं । गेल महोदय का एक कथन और देखिए - “प्रत्येक वस्तु भाव और अभाव का मेल है । इसके अस्तित्व का अर्थ ही यह एकसाथ है और "नहीं" है भाव में ही अभाव विद्यमान है ।' यह भावाभावात्मक वस्तु को मानना स्पष्ट अनेकान्त के सदृश है । अनेकान्तवाद अस्तित्व, नास्तित्व आदि उभय धर्मों का समन्वित रूप है। स्पष्ट ही अनेकान्त के समान कथन यहाँ है । अब हम प्रसिद्ध चिन्तक श्री कबीर का उद्धरण लें " साकार ब्रह्म मेरी माँ है, और निराकार ब्रह्म मेरे पिता । मैं किसे छोडूं, किसे स्वीकार करूँ ? तराजू के दोनों पलड़े बराबर भारी हैं । ३" यहाँ एक ही ब्रहम् में अवच्छेदक भेद से साकारत्व और निराकारत्व, पितृत्व एवं १. भारतीय दर्शन । बलदेव उपा० । पृ० ६०/६१/६२ 1 - २. पश्चिमी दर्शन - डॉ. दीवानचंद्र । पृ१८० । ३. वी. एस. नरवणे के " मार्डन इंडिया थाट" का हिन्दी अनुवाद, पृ. ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only ܕ ܙ ܙ www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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