SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि "नित्यो वा स्यात् कार्यो वा इति । तत्रोक्ताः दोषाः प्रयोजनान्यपि उक्तानि । तत्र त्वेषः निर्णयः यद्येव नित्यः अथापि कार्य: उभयाथापि लक्षणे प्रवर्त्यमिति ।" महाभाष्यकार समाधान करते हैं - “संग्रह" नामक व्याडि आचार्य कृत ग्रंथ में प्रधान रूप से इसका विचार किया गया है। इस विषय की परीक्षा करके, दोष तथा प्रयोजन कहने के बाद वहाँ यह निर्णय बतलाया गया है कि शब्द नित्य है और अनित्य भी है। दोनों प्रकार से लक्षण की प्रवृत्ति करनी चाहिए। यहाँ पर शब्द की नित्यता एवं अनित्यता दोनों बतलाकर स्पष्ट रूप से महाभाष्यकार ने अनेकान्त दृष्टि को अपनाया है। आचार्य बलदेव उपाध्याय गीता के विषय में कहते हैं - “गीता का अध्यात्म पक्ष जितना युक्तियुक्त तथा समन्वयात्मक है, उसका व्यवहार पक्ष भी उतना ही मनोरम तथा आदरणीय है..... इन विद्वान भाष्यकारों की युक्तियाँ अपने दृष्टिकोण से नितान्त सारगर्भित हैं, इसे कोई भी आलोचक मानने से नहीं हिचक सकता, परंतु पूर्वोक्त मतों में गीता के उपदेशों की समग्रता तथा व्यापकता पर पूर्णत: ध्यान नहीं दिया गया है। शास्त्रों ने मानवी प्रकृति की भिन्नता का ध्यान रख चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए त्रिविध उपायों की व्यवस्था की है। चिन्तन का प्रेमी साधक ज्ञानमार्ग से, सांसारिक विषयों की अभिरुचि वाला पुरुष कर्मयोग से तथा अनुरागादि मानसिक वृत्तियों के विशेष विकास वाला व्यक्ति भक्ति की सहायता से अपने उद्देश्य पर पहुंच सकता है । इन भिन्न-भिन्न मार्गों के अनुयायी साधक अपने ही मार्ग की विशिष्टिता तथा उपादेयता पर जोर देते थे तथा अन्य मार्गों को नितान्त हेय बतलाते थे। गीता के अध्याय से ही पता चलता है कि उस समय भारतवर्ष में चार प्रकार के पृथक् - पृथक् मार्ग प्रचलित थे।"१ इन चारों के नाम हैं कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग, ध्यानमार्ग तथा भक्तिमार्ग । जो जिस मार्ग का पथिक था वह उसे ही सबसे बढ़िया मानता था, उसकी दृष्टि में मुक्ति का दूसरा मार्ग था ही नहीं, परन्तु भगवान् ने इस गीता का प्रचार कर इन विविध साधनों का अपूर्व समन्वय कर दिया है, जिसका फल यह है कि जिस प्रकार प्रयाग में गंगा, यमुना तथा सरस्वती की धाराएँ १. गीता १३/२४/२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy