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________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद २५५ रूप से सत् है और अनित्यादि रूप से असत् है, इस प्रकार वह अनेक-धर्मात्मक सिद्ध हो जाता है, वैसे ही जगत् के समस्त पदार्थ इस त्रिकालबाधित स्वरूप से व्याप्त हैं। प्रमाता और प्रमिति आदि के जो स्वरूप हैं, उनकी दृष्टि से ही तो उनका अस्तित्व होगा। अन्य स्वरूपों से उनका अस्तित्व कैसे हो सकता है ? अन्यथा स्वरूपों में संकरता होने से जगत् की व्यवस्था का ही लोप हो जायेगा। सामान्यजन असमंजस में पड़ जायेंगे कि हम प्रमाता किसे कहें, प्रमिति क्या है और प्रमाण का लक्ष्ण क्या है ? पंचास्तिकाय की संख्या पाँच है; चार, तीन या दो नहीं, इसमें क्या विरोध है ? यदि यह कहा जाता है कि “पंचास्तिकाय पाँच हैं, और पाँच नहीं है तो विरोध हो सकता था, पर अपेक्षाभेद से तो पंचास्तिकाय पाँच हैं, चार आदि नहीं। दूसरी बात यह है कि सामान्य से पाँचों अस्तिकाय अस्तिकायत्वेन एक होकर भी विशेष की अपेक्षा तत्तद् व्यक्तियों की दृष्टि से पाँच भी हैं, इसमें विरोध कैसा और विरोध करने का कारण क्या है ? __ स्वर्ग और मोक्ष अपने स्वरूप की दृष्टि से है, नरकादि की दृष्टि से नहीं, इसमें क्या आपत्ति है । स्वर्ग, स्वर्ग है, नरक तो है नहीं, मोक्ष, मोक्ष ही तो होगा, संसार तो नहीं होगा। इस बात को तो आपको भी मानना पड़ेगा और आप मानते ही होंगे। उपनिषदो में सत्, असत्, सदसत्, और अवक्तव्य - ये चारों पक्ष मिलते हैं। बौद्ध त्रिपिटक में भी चार पक्ष मिलते हैं। सान्तता और अनन्तता, नित्यता और अनित्यता आदि प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है। उसी प्रकार इन चारों पक्षों को भी अव्याकृत कहा गया है। उदाहरण के लिए निम्न प्रश्न अव्याकृत हैं - १. होति तथागतो परं मरणाति ? न होति तथागतो परं मरणाति ? होति च न होति च तथागतो परं मरणाति नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति ? २. सयं कतं दुक्खंति ? . परं कतं दुक्खंति ? . सयं कतं परं कतं च दुक्खंति असयकारं अपरकारं दुक्खंति ? संजयवेलट्टिपुत्त भी इस प्रकार के प्रश्नों का न 'हाँ' में उत्तर देता था न “ना” में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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