SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि विद्वानों के अभिमतों को उपस्थित करने के बाद अब शंकराचार्य के कथन के बारे में स्याद्वाद का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने स्याद्वाद के अन्तर्रहस्य को समझने का प्रयास न कर यथार्थता की उपेक्षा की है। वस्तु अनेकान्त रूप है, उसमें अनेक धर्म अपेक्षा-पूर्वक अविरोध रूप से रहते हैं, यह समझने की बात नहीं है। एक ही पदार्थ अपेक्षाभेद से परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का आधार होता है। जैसे कि एक ही व्यक्ति अपेक्षाओं के भेद से पिता भी है, पुत्र भी है, गुरु भी है, शिष्य भी है, ज्येष्ट भी है, कनिष्ठ भी है, इसी तरह और भी अनेक उपाधिभेद अपनी-अपनी अपेक्षाओं से उसमें विद्यमान हैं। यही बात प्रत्येक वस्तु के बारे में भी समझनी चाहिए कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि विभिन्न अपेक्षाओं से उसमें अनन्त धर्म संभव हैं । केवल अपनी इच्छा से यह कह देना कि जो पिता है, वह पुत्र कैसे ? जो ज्येष्ठ है, वह कनिष्ठ कैसे ? जो गुरु है, वह शिष्य कैसे ? आदि प्रतीतिसिद्ध और प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले स्वरूप का अपलाप ही माना जायेगा । अपनी एकांगी दृष्टिसे कुछ भी मान लिया जाये अथवा कह दिया जाये, किन्तु वस्तु में विद्यमान उन प्रतीतिसिद्ध धर्मों का अपलाप नहीं किया जा सकता है, उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता है। अब उक्त दृष्टांतों के प्रकाश में हम स्याद्वाद के कथन की परीक्षा करें । स्याद्वाद में परस्पर, विरुद्ध दो धर्मों को एक पदार्थ में मानने का कारण यह है कि उसमें एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य से विलक्षण तीसरा ही पक्ष स्वीकार किया गया है। क्योंकि स्याद्वाद में प्रत्येक वस्तु किसी अपेक्षा से नित्य और किसी अपेक्षा से अनित्य स्वीकार की गई है। यह नित्यानित्य रूप सब लोगों के अनुभव में आता है। जैन दर्शन में सात तत्त्वों का जो स्वरूप है, उनका उस स्वरूप से ही तो अस्तित्व है, किन्तु भिन्न स्वरूप से तो उनका नास्तित्व ही है। यदि जिस रूप से उनका अस्तित्व कहा जाता है, उसी रूप से नास्तित्व कहा जाये तो विरोध या असंगति हो सकती थी। स्त्री जिसकी पत्नी है, उसी की माता कही जाये तो विपरीत बात हो सकती है। ब्रह्म का जो स्वरूप नित्य, एक और व्यापक बताया जाता है उसी रूप से तो ब्रह्म का अस्तित्व माना जा सकता है, अनित्य, अनेक और अव्यापक रूप से तो नहीं। हम यहाँ एक प्रश्न पूछते हैं कि ब्रह्म का नित्यादि रूप से जिस प्रकार अस्तित्व है, क्या उसी प्रकार अनित्य आदि रूप से भी उसका अस्तित्व है ? यदि ऐसा ही माना जाये तो क्या ब्रह्म का स्वरूप समझने योग्य रह जाता है ? और फिर क्या वह समझ लिया जायेगा ? यदि नहीं, तो ब्रह्म नित्यादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy