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________________ २५६ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि उसका किसी भी विषय में कुछ भी निश्चय न था। वह न हाँ कहता था न “ना” कहता, न अव्याकृत कहता, न व्याकृत कहता। किसी भी प्रकार का विशेषण देने में वह भय खाता था। दूसरे शब्दों में वह संशयवादी था। किसी भी विषय में अपना निश्चित मत प्रकट नहीं करता था। स्याद्वाद और संजयके संशयवाद में यह अन्तर है कि स्यावाद निश्चयात्मक है, जबकि संजय का संशयवाद अनिश्चयात्मक है। महावीर प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अपेक्षाभेद से निश्चित उत्तर देते थे। वे न तो बुद्ध की तरह अव्याकृत कहकर टाल देते थे, और न संजय की तरह अनिश्चय का बहाना बनाते थे। जो लोग स्याद्वाद को संजयवेलट्ठिपुत्त का संशयवाद समझते हैं, वे स्याद्वाद के स्वरूप को समझ नहीं पाए हैं। जैन दर्शन के आचार्यों ने स्पष्ट कहा है कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, स्याद्वाद अज्ञानवाद नहीं है, स्याद्वाद अस्थिरवाद या विक्षेपवाद नहीं है। वह निश्चयवाद है, ज्ञानवाद है। संजय के अनिश्चयवाद का स्याद्वाद से कोई सम्बन्ध नहीं है। . ___अनेकान्त के विरोधी तर्कों पर गम्भीरता से विचार किया जाय तो पता लगता है कि विभिन्न दर्शनकारों ने जो अनेकान्त विरोधी तर्क प्रस्तुत किये हैं, उनमें उन दर्शनकारों ने अनेकान्त दर्शन के साथ न्याय नहीं किया है। मालूम होता है कि विरोधी दर्शनकारो ने अनेकान्तवाद को समझने का या तो प्रयत्न ही नहीं किया, या समझकर भी ऊपर ऊपर ही उसका विरोध किया । वैज्ञानिक मार्ग यह है कि हम अपने विरोधियों की बात को ठीक समझें, फिर उस पर आलोचना करें। यदि हम उसको ठीक न समझकर अथवा उसके द्वारा उक्त शब्दों के अर्थ को घुमाकर या उसके एक देश को लेकर उसका उपहास करने की दृष्टि से कुछ भी अर्थ करें, यह उचित मार्ग अथवा तत्त्वान्वेषण तत्त्व जिज्ञासा का मार्ग नहीं है और यह संदर्भित चिन्तन के प्रति अन्याय भी है। यह पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है और यहाँ पुन: दुहराते हैं कि स्याद्वाद पदार्थों को जानने की एक दृष्टि है । स्याद्वाद स्वयं अंतिम सत्य नहीं है। वह हमें अंतिम सत्य तक पहुँचाने के लिए केवल मार्गदर्शक का काम करता है। स्याद्वाद से व्यवहार-सत्य के जानने में उपस्थित होनेवाले विरोधों का समन्वय किया जा सकता है । इसलिए जैन दर्शनकारों ने स्याद्वाद को व्यवहार-सत्य माना है। व्यवहार-सत्य के आगे जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य भी माना गया है जिसे पारिभाषिक शब्दों में केवलज्ञान कहा जाता है। स्याद्वाद में सम्पूर्ण पदार्थों का क्रम-क्रम से ज्ञान होता है। किन्तु केवलज्ञान सत्यप्राप्ति की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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