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________________ २२८ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि पल्लवित और पुष्पित किया है। इस क्षेत्र में सबसे अधिक और सबसे पहले अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को विशद रूप देने का प्रयत्न आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने तथा आचार्य समन्तभद्र ने किया था। उक्त दोनों आचार्यों ने अपने-अपने युग में उपस्थित होनेवाले समग्र दार्शनिक प्रश्नों का समाधान करने का प्रयत्न किया। आचार्य सिद्धसेन ने अपने “सन्मतितर्क" नामक ग्रंथ में सप्तनयों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है । जबकि आचार्य समन्तभद्र ने अपने “आप्तमीमांसा' ग्रंथ में सप्तभंगी का सूक्ष्म विश्लेषण और विवेचन किया है। मध्य युग में इसी कार्य को आचार्य हरिभद्र और आचार्य अकलंकदेव ने आगे बढ़ाया। नव्यन्याययुग में वाचक यशोविजय जी ने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद पर नव्यन्याय-शैली में तर्कग्रंथ लिखकर दोनों सिद्धांतों को अजेय बनाने का सफल प्रयत्न किया है। भगवान महावीर से प्राप्त मूल दृष्टि को उत्तरकाल के आचार्यों ने अपने युग की समस्याओं का समाधान करते हुए विकसित किया है। ___ कोई भी पदार्थ स्याद्वाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता - “आदीध्माव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिमेदि वस्तु" ___ - अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका अनेकान्तवाद का आधार न लिया जाए तो व्यावहारिक और दार्शनिक दोनों दृष्टियों से काफी उलझनें खड़ी हो जाती हैं। एक हाथी को देखने वाले सात अन्धों का दृष्टान्त स्याद्वाद के समर्थन के रूप में प्रसिद्ध है। एक व्यकित कवि है, लेखक है, वक्ता है, कलाकार है, चित्रकार है, संगीतकार है, और भी न जाने क्या-क्या है । कविता-गोष्ठी में उसका कवि रूप सामने आता है उस समय उसकी दूसरी विशेषताएँ समाप्त नहीं हो जाती पर एक समय में एक विशेषता की ही चर्चा होती है। उसके लिए कोई यह कहे कि यह कवि ही है, इस कथन में सत्यता नहीं रहती। इसलिए स्याद्वाद को समझने वाला व्यक्ति कहेगा - स्याद् यह कवि है। एक अपेक्षा से यह कवि है किन्तु अन्य अपेक्षाओं से वक्ता, लेखक आदि भी है, जिनकी चर्चा का यहाँ प्रसंग नहीं है। वर्तमान में जो विशेषता चर्चा का विषय होती है, वह प्रधान बन जाती है और अन्य विशेषताएँ गौण हो जाती हैं। इस दृष्टि से स्याद् शब्द परिपूर्ण सत्य का वाचक बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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