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________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद २२९ अपूर्ण सत्य व्यक्ति के मन में भ्रम उत्पन्न कर देता है। उसके आधार पर वह सही या गलत का निर्णय नहीं कर पाता । एक वस्तु है और उसे जानने या देखने वाले अनेक हैं । सबके पास अपनी-अपनी दृष्टियाँ हैं भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से समझी हुई वस्तु का स्वरूप एक समान नहीं हो सकता। एक हिमालय पर्वत के बारे में चार व्यक्तियों की भिन्नभिन्न धारणाओं के आधार पर आप इस तथ्य को अधिक स्पष्टता से समझ सकते हैं। चार पर्वतारोही हिमालय की एवरेस्ट चोटी पर पहुँचे । चारों व्यक्ति चार स्थानों में खड़े थे। वहाँ से उन्होंने हिमालय पर्वत के चित्र लिये। चारों अपने-अपने चित्र लेकर लोगों से मिले । उन्होंने सबको चित्र दिखाए और कहा हिमालय ऐसा है । चारों चित्रों में असमानता थी । प्रत्येक पर्वतारोही अपने चित्र को सही बता रहा था। दर्शक लोग उलझन में पड़ गए । आखिर एक व्यक्ति ने सबकी उलझन समाप्त करते हुए बताया की ये चारों चित्र हिमालय के हैं। चूँकि ये भिन्न-भिन्न स्थानों से लिए गए हैं, इसलिए इनमें भिन्नता स्वाभाविक है । अमुक स्थान पर खड़े होने से जो दृश्य दिखाई देता है, वह दूसरे स्थान से दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। दृष्टिकोण की भिन्नता से तथ्यों में भिन्नता आ जाती है। आप चारों व्यक्ति सही हैं। चारों के चित्र हिमालय के चित्र हैं पर इनके साथ स्थान विशेष की विवक्षा जोड़नी होगी। उपर्युक्त उदाहरण स्याद्वाद का बोध कराने में सहायक है। एक वस्तु को हम भिन्नभिन्न दृष्टियों से देखेंगे तो उसके स्वरूप में अन्तर निश्चित रहेगा। इस अन्तर को समझने के लिए उन-उन दृष्टियों को समझना आवश्यक है और यही स्याद्वाद है। जैन दर्शन में इसका स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, इसलिए विसदृश भी है और सदृश भी है। एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से विसदृश होता है, इसलिए कि उनके सब गुण समान नहीं होते। वे दोनों सदृश भी होते हैं, इसलिए कि उनके अनेक गुण समान भी होते हैं। चेतन गुण की दृष्टि से जीव पुद्गल से भिन्न है तो अस्तित्व और प्रमेयत्व गुण की अपेक्षा वह पुद्गल से अभिन्न भी है। कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थ से न सर्वथा भिन्न है, और न सर्वथा अभिन्न, किन्तु भिन्नाभिन्न है । वह विशेष गुण की दृष्टि से भिन्न है और १ - ‘अन्ययोगव्यवच्छेदिका', श्लोक २५ स्यानाशि नित्यं सदृशं विरूपं, वाच्पं न वाच्यं सदसत्तदेव। विपश्चितां नाथ ! विपति तत्त्वंः सुधोदगतोद्गारपरंपरेयम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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