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________________ રર૭. समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद की है। भगवान् महावीर का युगदर्शन-प्रणयन का युग था। आत्मा, परलोक, स्वर्ग, मोक्ष, है या नहीं-इन प्रश्नों की गूंज थी। सामान्य विषय भी बहुत चर्चे जाते थे। महात्मा बुद्ध मध्यम प्रतिपदावाद या विभज्यवाद के द्वारा समझाते थे। संजय वेलाट्ठिपुत निपेक्षवाद या अनिश्चियवाद की भाषा में बोलते थे। भगवान् महावीर का प्रतिपादन स्याद्वाद के सहारे होता था। ____ भगवान् महावीर ने आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूप-निरूपण के अवसर पर कभी मौन धारण नहीं किया । जब कभी कोई जिज्ञासु उनके समीप आया और उसने आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के संबंध में कोई प्रश्न पूछा तब भगवान् ने अनेकान्त दृष्टि के आधार पर उसके प्रश्न का समाधान करने का सफल प्रयत्न किया है। जबकि भगवान् महावीर के समकालीन तथागत बुद्ध ने इस प्रकार के प्रश्नों को अव्याकृत कोटि में डाल दिया था। भगवान महावीर के युग के प्रचलित वादों का अध्ययन जब कभी हम प्राचीन साहित्य का अनुशीलन करते समय करते हैं, तब ज्ञात होता है कि एक आत्मा के संबंध में ही किस प्रकार की विभिन्न धारणाएँ उस युग में थीं। आत्मा के संबंध में इस प्रकार के विभिन्न विकल्प उस समय प्रचलित थे - आत्मा है भी, नहीं भी, नित्य भी, अनित्य भी, कर्ता भी और अकर्ता भी-आदि आदि । भगवान् महावीर ने अपनी अनेकान्तमयी और अहिंसामयी दृष्टि से अपने युग के विभिन्न वादों का समन्वय करने का सफल प्रयल किया था। भगवान् महावीर ने कहा स्व-स्वरूप से आत्मा है, पर-स्वरूप से आत्मा नहीं है। द्रव्य-दृष्टि से आत्मा नित्य है, और पर्यायदृष्टि से आत्मा अनित्य है। द्रव्य-दृष्टि से आत्मा अकर्ता है और पर्याय दृष्टि से आत्मा कर्ता भी है। वस्तुत: वस्तु-स्वरूप के प्रतिपादन की यह उदार दृष्टि ही अनेकान्तवाद है। अनेकान्त दृष्टि का और अनेकान्तवाद का जब हम भाषा के माध्यम से कथन करते हैं तब उस भाषा-प्रयोग को स्याद्वाद और सप्तभंगी कहा जाता है। अनेकान्तवाद का आधार है, सप्तनय और सप्तभंगी का आधार है सप्तभंग एंव सप्तविकल्प । भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद की भाषा का आविष्कार करके दार्शनिक जगत की विषमता को दूर करने का प्रयत्न किया था। यही कारण है कि भगवान् महावीर की यह अहिंसामूलक अनेकान्त दृष्टि और अहिंसामूलक सप्तभंगी जैन दर्शनकी आधार-शिला है । भगवान् महावीर के पश्चात् विभिन्न युगों मे होनेवाले जैन आचार्यों ने समय-समय पर अनेकान्तवाद और स्यादवाद की युगानुकूल व्याख्या करके उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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