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________________ २१० समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि है। जिस तरह दर्पण में अपने चेहरे की मलिनता स्पष्ट प्रतिबिम्बत हो जाती है, और देखने वाला उसे ठीक करके अपना चेहरा सुन्दर बना लेता है। उसी प्रकार भिक्षुओ! अपनी चेतना के दर्पण में मन की मलिनताओं को देखो। तुम्हारे विचार, वचन और कार्य निर्मल हैं या नहीं ? तुम कहीं इन्द्रियों के आकर्षण में तो नहीं पड़े हो ? तुम्हारे विचार, वचन और कार्य पवित्र हैं या नहीं ? क्या क्रोध, मान, माया, लोभ तुम्हें हैरान कर रहे हैं ? क्या कोई दुर्व्यसन तुम्हारे लगा हुआ है ? यदि हाँ तो तत्काल उन्हें देखो परखो, पश्चात्ताप एवं प्रायश्चित्त द्वारा उन क्षतिओं-दोषों को मिटाने में जुट पड़ो। देर और आलस्य न करो। आज जो गया, वह फिर कल नहीं आएगा। आत्मनिरीक्षण-परीक्षण और आत्मसुधार के इस क्रम में विलम्ब न करो । तभी मोक्ष के अधिकारी बनोगे। तुम औरों का नहीं अपना उद्धार-सुधार स्वयं कर सकते हो, उसी में जुट जाओ आज से, अभी से।” . अपने पापों के प्रति घृणा और पछतावा ही वे आधार हैं, जिनके सहारे भविष्य में वैसा पाप-दोष न होने की आशा की जा सकती है। महाभारत (वनपर्व) में स्पष्ट कहा है विकर्मणा तप्तमान: पापाद् विपरिमुच्यते । न तत् कुर्यात् पुनरिति द्वितीयात् परिमुच्यते ॥ "जो मनुष्य पापकर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है; तथा 'फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूंगा; ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी वह बच जाता है।" निष्कर्ष यह है कि पश्चात्ताप में अपने से हुए पाप-कर्म के प्रति तीव्र दुःख होना चाहिए, अन्यथा, कारणवश उत्पन्न हुआ सदाचरण का उत्साह श्मशान-वैराग्य की तरह ठंडा हो जायेगा और फिर उसी पुराने ढर्रे पर जीवन की गाड़ी के पहिये लुढ़कने लगेंगे । पश्चात्ताप की उपयोगिता इसी में है कि अन्त:करण में दूषित आचरण के प्रति विरोधी प्रतिक्रिया इतने उग्ररूप से उभरे कि भविष्य में उस प्रकार के अनाचरण की गुंजाइश ही शेष न रहे । अन्त:करण से उत्पन्न पश्चात्ताप सब पापो को भस्म कर देता है। शिवपुराण में यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया पश्चातापः पापकृतां निष्कृति: परा । सर्वेषां वर्णितं सद्भिः सर्व पाप विशोधनम् ॥ “पश्चात्ताप ही पापो की परम निष्कृति है, इसीलिए संतजनों ने पश्चात्ताप से सब पापों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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