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________________ २११ समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक की विशुद्धि होना बतलाया है।" महात्मा गाँधी के आश्रम में जब किसी आश्रमवासी से कोई दोष या अनाचार हो जाता तो प्रार्थना के समय या तो वह जाहिर में अपने उस दोष को विवरणपूर्वक पश्चात्तापपूर्वक व्यक्त करता और उसका गाँधीजी द्वारा निर्धारित प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाता था अथवा जाहिर में अपने दोषों को घोषित करने की स्वयं में हिम्मत न होती तो उसके बदले कोई उसका विश्वस्त साथी विवरण सहित जाहिर करता था, उसे उस समय उपस्थित रहना पड़ता था। मनुस्मृति में पापों के प्रकटीकरण से अधर्ममुक्त होने की बात का समर्थन किया गया है यथा यथा नरोऽधर्म स्वयं कृत्वाऽनुभाषते । तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाऽधर्मेण मुच्यते ॥ "जैसे-जैसे मनुष्य अपना अधर्म लोगों के समक्ष ज्यों का त्यों प्रकट करता है, वैसे वैसे ही वह अधर्म से उसी प्रकार मुक्त होता जाता है, जैसे साप केंचूली से।" अत: पाप को छिपाना नहीं चाहिए। पापकर्म छिपाने पर वे बहुत बढ़ते जाते हैं। पाराशर स्मृति इस बात की साक्षी है कृत्वा पापं न गुह्येत् गुह्यमानं विवर्धते । स्वल्पं वाऽथ प्रभूतं वा, धर्मविदे तनिवेदयेत् ॥ ते हि पापे कृते वेद्या हन्तारश्चैवपाप्मनाम् । व्याधि तस्य यथा वैद्या बुद्धिमन्तो रुजापहाः ।। “पापाचरण हो जाने पर उसे छिपाना नहीं चाहिए। छिपाने से वह बढ़ता है। पाप छोटा हो या बड़ा, किसी धर्मज्ञ के समक्ष अवश्य प्रकट कर देना चाहिए। इस प्रकार पाप प्रकट कर देने से वे अध्यात्मवैद्य उसी प्रकार पापों को नष्ट कर देते हैं, जैसे बुद्धिमान वैद्य से रोगी द्वारा चिकित्सा करा लेने पर वे उसके रोग को समूल नष्ट कर देते हैं। महाभारतमें भी पापों को न छिपाने के लिए कहा गया है - तस्मात् पापं न गुह्येत् गुह्यमानं विवर्धयेत् । कृत्वा तत् साधुभ्य एवमेतवैत् ते तत् शमयन्त्युत । “अतः अपने पाप को न छिपायें । छिपाया हुआ पाप बढ़ता है। यदि कभी पाप बन गया हो तो उसे साधु पुरुषों से कह देना चाहिए, वे उसका शमन कर देते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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