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________________ समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक २०९ (वाणीविलास) छोड़कर रागदिभावों का निवारण करके जो आत्मा का ध्यान करना है, वह प्रतिक्रमण है। जो (साधक) विराधना को विशेषत-छोड़कर आराधना में प्रवृत्त होता है, वह (जीव) प्रतिक्रमणी है-प्रतिक्रमणमय है।" इसी प्रकार अनाचार को छोड़कर आचार में, उन्मार्ग का त्याग करके वीतराग प्ररूपित सन्मार्ग में, शल्यभाव को छोड़कर निःशल्यभाव में, अगुप्तिभाव को छोड़कर त्रिगुप्ति गुप्तभाव में, आर्तरौद्रध्यान को छोड़कर धर्म या शुक्लध्यान में, मिथ्यादर्शन को छोड़कर सम्यग्दर्शन भाव में प्रवृत्त होता है, वह भी (जीव) प्रतिक्रमण है। निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप मोक्ष-मार्ग की साधना करते समय जहाँ भी कोई अतिचार दोष मन, वचन या काया से लगा हो, वहाँ 'हा ! मैंने प्रभादवश, अज्ञानता से यह दुष्कर्म किया, कराया या करने वालों का अनुमोदन किया, यह अनुचित किया; ऐसे आत्मा के परिणामों को प्रतिक्रमण कहते हैं। एक पाश्चात्य विचारक ‘सीड' (Seed) ने आत्मालोचन के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है "It is but owning what you need not be ashamed of-that you now have more sense than you had before, to see your error, more humility to acknowledge it, more grace to correct it." “जो भी दोष-पाप तुमसे हो चुके हैं, उन्हें स्वीकार करने में किसी प्रकार की लज्जा न करना ही तुम्हारा अपने पर स्वामित्व है, क्योंकि अपनी भूलों को देखने में तुम्हारी बुद्धिमत्ता पहले की अपेक्षा वर्तमान में अधिक होती है, उन दोषों को पहचानने-जानने में तुम्हारी नम्रता पहले से अधिक बढ़ी है, उनकी शुद्धि करने में तुम्हारी शोभा या प्रतिष्ठा भी पहले से अधिक होती है।" तथागत बुद्धने एकबार कहा था “दूसरों का दोष देखना आसान है, मगर अपना दोष देखना कठिन है। लोग दूसरे के दोषों को भूस के समान फटकते फिरते हैं किन्तु अपने दोषों को इस तरह छिपाते फिरते हैं, जैसे चतुर जुआरी हारने वाले पासे को छिपा लेता है। . जैतवन में बौद्धधर्म सम्मेलन चल रहा था। भारी संख्या में बौद्धभिक्षु एकत्रित थे। प्रवचन मंडप में शान्त मुद्रा में नरनारियों का समूह बैठा था । तथागत ने प्रवचन का प्रारम्भ करते हुए कहा “मुमुक्षुओ! दूसरों के विचार पढ़ना, संकल्प जानना और भावनाओं और प्रवृत्तियों की थाह लेना तुम्हारे लिए कठिन है, परन्तु अपनी परख सब आसानी से कर सकते हो। दूसरों को सुधारने की अपेक्षा जो अपने सुधार का प्रयत्न करता है, वही मोक्ष का सच्चा अधिकारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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