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________________ २०८ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि से उत्तरोत्तर प्रत्येक शभयोग में प्रवृत्त होना ही प्रतिक्रमण है ।' राग-द्वेषादि औदयिकभाव संसारमार्ग है, तथा समता, क्षमा, नम्रता, करुणा, दया आदि क्षायोपशमिक भाव मोक्ष मार्ग अतएव यद्यपि प्रतिक्रमण के (१) प्रशस्त और (२) अप्रशस्त, ये दो भेद किये जाते हैं (आ., पृ.५५२-१), तो भी आवश्यक क्रिया में जिस प्रतिक्रमण का समावेश है, वह अप्रशस्त नहीं किन्तु प्रशस्त ही है; क्योंकि इस जगह अन्तर्दृष्टि वाले आध्यात्मिक पुरुषों की ही अवश्य क्रिया का विचार किया जाता है । (१) दैवसिक, (२) रात्रिक, (३) पाक्षिक, (४) चातुर्मासिक (५) सांवत्सरिक, ये प्रतिक्रमण के पाँच भेद बहुत प्राचीन तथा शास्त्र-संगत है; क्योंकि इन का उल्लेख श्रीभद्रबाहुस्वामी तक करते हैं (आ. नि., गा. १२४७) । काल-भेद से तीन प्रकार का प्रतिक्रमण भी बतलाया है। (१) भूतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना करना, (२) संवर करके वर्तमानकाल के दोषों से बचना और (३) प्रत्याख्यान द्वारा भविष्यत् दोषों को राकना प्रतिक्रमण है (आ., पृ. ५५१)। ___उत्तरोत्तर आत्मा के विशेष शुद्ध स्वरूप में स्थित होने की इच्छा करने वाले अधिकारिओं को यह भी आना चाहिए कि प्रतिक्रमण किस किस का करना चाहिए : (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति (२) कषाय (३) और (४) अप्रशस्त योग, इन चार का प्रतिक्रमण करना चाहिए । अर्थात् मिथ्यात्व छोड़ कर सम्यक्त्व को पाना चाहिए, अविरति का त्याग कर विरति को स्वीकार करना चाहिए, कषाय का परिहार करके क्षमा आदि गुण प्राप्त करना चाहिए और संसार बढ़ाने वाले व्यापारों को छोड़ कर आत्मस्वरूप की प्राप्ति करनी चाहिए । ___ एक कहावत है सुबहका भूला शाम को वापस अपने स्थान पर चला आता है तो भूला नहीं कहलाता', इसी प्रकार समतायोगी चैतन्ययात्री भी अपने आत्मभावों से हटकर परभावों में रमण करता करता पुन: संभलकर आत्मभावों में रमण करने लगता है, वही आत्मा के लिए प्रतिक्रमण है। अथवा जो जो बातें आत्म भावों या आत्म गुणों के प्रतिकूल हैं, उनसे हटकर पुन: अपने आत्मभाव या आत्मगुणों में प्रवृत्त हो जाना भी प्रतिक्रमण है। नियमसार ' (८३-८४) में इसी बात को विशेषतः स्पष्ट करते हुए कहा है “वचनरचना १. प्रति प्रतिवर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेव । निशल्यस्य यतेर्यत्तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥ २. नियमसार मूल ८३, ८४, ८५ - ९१ संख्यक मोत्तूण वयणरयणं' आदि गाथाएँ। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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