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________________ समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक आत्मतुल्य व्यवहार करना 'सामायिक' है ।" समो राग-द्वेषयोरपान्तरालवती मध्यस्थः, इण गतौ, अयनं अयो गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समाय समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनि प्रवृत्ति: समाय एव सामायिकम् 'सामायिक' की उपर्युक्त व्याख्या देते हुए श्री मलयगिरि ने 'आवश्यक वृत्ति' में कहा है कि राग द्वेष में मध्यस्थ रहना उसका नाम 'सम' और जिसमें सम का लाभ हो ऐसी मोक्षाभिमुखी प्रवृत्ति का नाम है 'सामायिक' । १६५ • (२) 'सम' का एक और भी अर्थ होता है शम, उपशम । श्री हेमचन्द्राचार्य ने 'योगशास्त्र' पर लिखी गई वृत्ति में कहा है : राग-द्वेष नियुक्तस्य:सत आयो ज्ञानादीनां लाभः प्रशमसुखरूपसमाय: । समाय एव सामायिकम् । ( राग और द्वेष से मुक्त हुए आत्मा को ज्ञानादिका प्रशम सुख रूप जो लाभ होता है वह है 'समाय' और वही सामायिक | ) विशेषावश्यक भाष्य में श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी ऐसा ही कहा है: राग दोस विरहिओ समो ति अयणं अयोत्ति गमणं त्ति । समामण ( अयणं) त्ति समाओ, स एव सामाइयं नाम ।। ( राग और द्वेष रहित आत्मा की परिणति सम है । अय का अर्थ होता है अयन अथवा गमन । वह गमन सम प्रति होता है अतः समाय कहलाता है। ऐसा समाय ही सामायिक कहा जाता है ।) (३) समानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि तेसु अयनं गमनं समाय:, स. एव सामायिकम् मोक्ष मार्ग के साधन होते हैं ज्ञान, दर्शन और चारित्र । उन्हें 'सम' कहते हैं । उनके प्रति अयन या गमन करना अथवा प्रवृत्त होना उसका नाम 'सामायिक' | इसके साथ विशेषावश्यक भाष्य की निम्नलिखित गाथा की तुलना : १. आ. नि. गा. १०३२ २. आवश्यक मलयगिरीवृत्ति, गा. ८५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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