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________________ १४२ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि जैसे - जैसे संसार के सुख का राग घटता जाता है, वैसे वैसे विराग का भाव बढ़ता जाता है। अर्थात् संसार के सुख पर जिसको थोड़ा भी राग हो उसे विरागी नहीं कह सकते ऐसा न मानें! परन्तु ऐसा मानें कि विराग प्रकटे बिना कभी भी सच्चा धर्म- राग प्रकट नहीं हो सकता । विराग प्रकटे तो ही मोक्ष का राग प्रकट हो सकता है और मोक्ष का राग प्रकट हो तभी सच्चा धर्मराग प्रकट हो सकता है। क्योंकि धर्म, मोक्ष के उपायरूप में ही वस्तुत: आदरणीय है। मोक्ष के सुख का राग जैसे - जैसे बढ़ता जाता है, वैसे वैसे संसार के सुख का राग घटता जाता है; और इस प्रकार संसार के सुख का राग जैसे- जैसे घटता जाता है वैसे-वैसे सच्चा धर्मराग बढ़ता जाता है। इसलिए त्याग करने का मन होता है। मोक्ष के सुख का राग और संसार के सुख के प्रति विराग - इनका प्रमाण बढ़ने पर संसार के सुख को छोड़ने की तरफ जीव झुकता है। इसलिए वह व्रतादि में आता है। जब संसार के सुख का राग निकल जाता है और मोक्ष के सुख के राग के कारण मोक्ष के उपायभूत धर्म का राग ही प्रधान बन जाता है, तब सर्वविरति का परिणाम आत्मा में प्रकट होता है। इस प्रकार विराग और त्याग - दोनों मिलकर वीतराग दशा को खींच लाते हैं। (iv) अनुकम्पा : सम्यक्त्व का चौथा लिंग है - अनुकम्पा । दीनदुखियों के दुःख को देखकर दिल द्रवित हो और उससे उन दुःखों को दूर करने की यथाशक्ति प्रवृत्ति हो, उसे अनुकम्पा कहते हैं। परन्तु यह, अनुकम्पा पक्षपात रहित हो, यह परम आवश्यक है। वैसे तो क्रूर से क्रूर स्वभाव के मनुष्य भी अपने - अपने पुत्र-पुत्री आदि सगे - सम्बन्धियों के दुःख को देखकर दु:खी होते हैं। मनुष्य तो क्या, स्वभाव से क्रूर पशु-पक्षियों में भी अपने बच्चों आदि के दुःखों को देखकर उनको दूर करने के भाव प्रकट होते हैं। तो इसे अनुकम्पा कहा जाय ? नहीं। क्योंकि इस प्रकार दुःख से द्रवित हो जाना और दुःख को दूर करने की प्रवृत्ति करना, ममत्व भाव को लेकर बनता है। केवल ममत्व भाव के कारण ही, अन्य के दुःख से दिल द्रवित हो और ममत्व के कारण ही उस दुःख को दूर करने की प्रवृत्ति हो, इसमें वस्तुत: अनुकम्पा का भाव नहीं है। __ अनुकम्पा का भाव तो कोमल ह्यदय की अपेक्षा रखता है। किसी के भी दुःख को देखकर हृदय द्रवित हो और उसके दुःख को दूर करने की यथाशक्य प्रवृत्ति हो, यह अनुकम्पा का विषय है। इस कारण पक्षपात रहित होकर दुःखियों के दुःख को देखकर दिल द्रवित हो और पक्षपात रहित होकर उनके दुःखों को दूर करने की यथाशक्य प्रवृत्ति हो, इसे अनुकम्पा कहते हैं। इस तरह हृदय के द्रवित होने में और दुःख को दूर करने की यथाशक्य प्रवृत्ति होने में वस्तुत: दृष्टि 'दुःखी कौन है' इस पर नहीं होती परन्तु उस दुःखी के केवल दुःख की तरफ ही दृष्टि होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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