SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४१ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय - वास के प्रति जो नफरत पैदा हो या संसारवास से थकान आजाय उसे निर्वेद कहा जाता है। इस प्रकार के जीव के भाव का संवेग में भी समावेश होता है। संसारवास के प्रति अरूचि उत्पन्न होना संवेग है, और मोक्ष की अभिलाषा निर्वेद है, ऐसा अर्थ भी किया जाता है। पाँच इन्द्रियों के पाँच विषयों के प्रति गृद्धि के त्याग को भी निर्वेद कहते हैं। गृद्धि अर्थात अति आसक्ति । 'विषयों की अति आसक्ति जीव को इस लोक में भी अनेक उपद्रवों का भोग बनाती है और विषयों की अति आसक्ति से उपार्जित पाप के कारण जीव को परभवों में नरकादि गतियों में भयंकर दुःख भोगने पड़ते हैं' - ऐसे विचार से जीव को विषयों के प्रति विराग का जो भाव पैदा होता है उसे भी निर्वेद कहा जाता है। कर्मग्रन्थि को भेद देने वाले जीवों में ऐसा विषयविराग होना स्वाभाविक है अविरति के जोर वालों में कदाचित् यह न भी प्रतीत हो यह संभव है परन्तु प्रत्यक्ष में विषयविराग न भी प्रतीत हो तो भी सम्यक्त्व प्राप्त आत्मा में उसका भाव होता ही है। ___संसार के स्वरूप को जानने से उसके प्रति जो अरूचि उत्पन्न होती है, उसे निर्वेद कह सकते हैं। इसके बाद मोक्ष को जाने अर्थात् उसे मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा ही हो। मोक्ष सुख का ज्ञान हो जाने पर उसे संसार के चाहे जैसे सुख के प्रति भी लागाव नहीं होता - यह सुख भोगने के लिए संसार में रहना चाहिए, ऐसा विचार उसे नहीं होता। यह संवेग का आना है। उत्तम में उत्तम गिना जाने वाला भी विषयसुख, सच्चा सुख नहीं है। केवल मोक्षसुख ही सच्चा सुख है -' ऐसा सम्यक् पृथक्करण वह करता है, इससे उस जीव की दशा ऐसी होती है कि विषयसुख में उस आत्मा को कभी भी ऐकान्तिक चैन (शान्ति) का अनुभव नहीं होता। __ यह बात भी समझने योग्य है कि - विराग का अर्थ राग का सर्वथा अभाव हो; ऐसा नहीं। राग का सर्वथा अभाव तो श्री वीतराग के होता है। जीव जहाँ तक वीतराग नहीं बनता वहाँ तक जीव में राग तो रहता ही है। परन्तु जीव में राग होने पर भी वह विरागी हो सकता है। संसार के सुख की अति आसक्ति बुरी लगे; यह आसक्ति वर्तमान में भी दुःखदायक है और भविष्य में भी दु:खदायक है - ऐसा लगे तो यह भी विराग भाव है। बाद में, विराग बढ़ने पर ऐसा लगता है कि - ‘संसार का सुख चाहे जैसा हो परन्तु वह सच्चा सुख नहीं है।' इसमें भी राग तो घटा न ? फिर ऐसा लगे कि संसार उसके सुख - दुःख के योग से ही सुख रूप लगता है; सुखरूप लगने पर भी वह दुःख से सर्वथा मुक्त नहीं है और उसका भोग पाप के बिना नहीं हो सकता, इसलिए यह भविष्य के दुःख का भी कारण है; अत: संसार का सुख वस्तुत: भोगने लायक ही नहीं है। इसस प्रकार संसार के सुख के प्रति राग का घटना ही विराग का भाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy