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________________ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय १४३ अनुकम्पा के दो प्रकार हैं - द्रव्य और भाव । सम्यग्दृष्टि आत्मा सामर्थ्य के अनुसार दोनों प्रकार की अनुकम्पा करने वाला होता है। अत: अनुकम्पा सम्यक्त्व का एक लिंग मानी जाती है। अनुकम्पा का भाव भी एक ऐसा भाव है जिसकी रमणता बढ़ने से कषाय भाव मन्द - मन्द कोटि का बनता जाता है। अनुकम्पाहीनता कषायभाव की उत्तेजक है और अनुकम्पाशीलता कषायभाव की शामक है। अत: सम्यक्त्व - प्राप्त आत्माओं को अनुकम्पाशील बनकर भी चारित्रमोहनीय की प्रवृतियों को बलहीन आदि बनाने का कार्य करना चाहिए। कषायों का जोर अनुकम्पा भाव में अन्तराय करने वाला है और अनुकम्पा भाव का जोर कषायभाव को मन्द बनाने वाला है। अनुकम्पा का अर्थ करते हुए ऐसा भी कहा गया है कि - ‘मेरे द्वारा किसी भी छोटे - बडे, सूक्ष्म - स्थूल जीव को दुःख न उपजे। इस तरह मुझे बर्ताव करना चाहिए - ऐसी मन में भावना प्रकट हो और उसे लेकर तदनुरूप जो कुछ भी बर्ताव करने की इच्छा हो और बर्ताव हो, यह भी अनुकंपा है। जिस जीव में ऐसा अनुकम्पाभाव प्रकट होता है, वह जीव यथाशक्य किसी भी दुखी जीव के दुःख का निवारण करने का प्रयत्न किये बिना कैसे रह सकता है। अतः सम्यक्त्व का परिणाम जिस भाग्यशाली जीव में प्रकट होता है उस जीव में अनुकंपाभाव भी सहजरूप से प्रकट होता है। इसलिए उसके लिए सम्यग्ज्ञान के उपार्जन की तथा सम्यक् चारित्र के पालन की अभिलाषा भी सहज बन जाती है। (v) आस्तिक्य: आस्तिक्य शब्द आस्तिकता का द्योतक है। जैन दर्शन के अनुसार जो पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म-सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है। शुद्ध आस्तिक्य किसे कहा जाय? जीव-अजीव आदि तत्त्वों के अस्तित्व मात्र को मानने से शुद्ध आस्तिक्य है ऐसा नहीं माना जा सकता। परन्तु जीव - अजीव आदि तत्त्व जैसेजैसे स्वरूप वाले हैं, उस - उस स्वरूप वाले जीव अजीव आदि तत्त्वों को मानना, यह शुद्ध आस्तिक्य है। निष्कर्म के रूप में हम कह सकते हैं सम्यक् दर्शन का हमारे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। वह अनासक्त जीवन जीने की कला का केन्द्रिय तत्त्व हैं। हमारे चरित्र या व्यक्तित्व का निर्माण इसी जीवनदृष्टि के आधार पर होता है। समत्वपूर्ण व शान्तिमय जीवन जीने के लिये सम्यक्दर्शन से या श्रद्धा से युक्त होना आवश्यक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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