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________________ 106 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी कि ऋषिभाषित में अष्टविध कर्म ग्रंथी से इन्हीं कर्म के अष्ट प्रकारों का संकेत रहा होगा। जैन दर्शन में कर्म सिद्धांत का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है। कर्म सिद्धांत का जो गहन विवेचन जैन परंपरा में उपलब्ध होता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। किन्तु हम देखते हैं कि जैन कर्म सिद्धान्त की अनेक अवधारणाएँ ऋषिभाषित के 17वें महाकाश्यप नामक अध्ययन में, तेरहवें 'भयाली' नामक अध्ययन में, पंद्रहवें 'मधुरायण' नामक अध्ययन में, इक्कतीसवें 'पार्श्व' नामक अध्ययन में, और अड़तीसवें 'सारिपुत्त' नामक अध्ययन में कर्म सिद्धान्त का जो विवेचन उपलब्ध होता है, उसमें जैन कर्म सिद्धान्त में सन्निहित सभी प्रमुख तत्त्व उपस्थित पाये जाते हैं। ऐसा लगता है कि इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर आगे जैन कर्म सिद्धान्त का विकास हुआ होगा। जैन विद्वानों की यह भी मान्यता है कि तत्त्वमीमांसा और कर्म सिद्धानत के संदर्भ में महावीर की परंपरा पार्श्व की परंपरा की ऋणी है । ३७ इस कथन में हमें सत्यता प्रतीत होती है। ऋषिभाषित के उपरोक्त अध्ययन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जैन कर्म सिद्धान्त अपने स्वरूप निर्धारण में 'महाकाश्यप', भयाली, पार्श्व आदि का ऋणी है। कर्म का स्वरूप ऋषिभाषित में कर्म 'शब्द' किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यह भी विशेष रूप से जानना आवश्यक है। ऋषिभाषित के महाकाश्यप नामक अध्ययन में कर्म के आदान का उल्लेख हुआ । इससे ऐसा लगता है कि ऋषिभाषित कर्म को मात्र चैतसिक स्थिति या संस्कार न मानकर उसे कोई बाह्य भौतिक तत्त्व के रूप में भी स्वीकार करता है। ऋषिभाषित कर्म के आस्रव, संवर और निर्जरा की चर्चा भी करता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋषिभाषित की कर्म संबंधी अवधारणा जैन परंपरा की कर्म संबंधी अवधारणा के समान है या उसका ही पूर्व रूप है। ऋषिभाषित में कहा गया है कि " कर्म के आगमन को रोककर प्रशस्त मार्ग का अनुसरण करने वाला पूर्वार्जित कर्मों का निर्जरा कर निश्चयपूर्वक दुखों का क्षय कर देता है।" जिस प्रकार तेल और बत्ती के क्षय हो जाने पर दीपक लो रूप संतति का क्षय करता है। उसी प्रकार आत्मा कर्मास्रव और बंध का निरोध करके भव परंपरा का क्षय करता है। ३९ ऋषिभाषित में यह भी कहा गया है कि आत्मा सतत रूप से कर्मों का बंध और उनकी 37. अर्हत् पार्श्व और उनकी परंपरा -डॉ. सागरमल जैन, पृ. 28 38. कम्मायाणेऽवरुद्धाम्मि, सम्मं मग्गाणुसारिणा । पुव्वाउत्ते य णिज्जिणे, खयं दुक्खं णियच्छती । 39. णेहवत्तिक्खए दीवो, जहा चयति संतति । आयाणबंधरोहम्मि, तहऽप्पा भवसंत । Jain Education International For Private & Personal Use Only - 'इसिभासियाई', 9/25 -' इसिभासियाई', 9/22 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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