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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 107 निर्जरा करती रहती है। किन्तु ऐसी निर्जरा का कोई विशेष महत्त्व नहीं होता विशेष महत्त्व तो तप के द्वारा की गई निर्जरा का ही होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ऋषिभाषित में कर्म को आत्मा से भिन्न एक बाह्य तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है और इसी आधार पर उसके आस्रव (आदान) बंध, संवर और निर्जरा की चर्चा हुई है। उपलब्ध संकेतों के आधार पर यह माना जा सकता है कि ऋषिभाषित कर्म के भौतिक और चैतसिक दोनों स्वरूप मान्य रहे हैं, कर्म के ये भौतिक और चैतसिक पक्ष ही जैन परंपरा में द्रव्यकर्म और भावकर्म के रूप में जाने जाते हैं। कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ जैन कर्म सिद्धान्त में कर्म की निम्न दस अवस्थाओं को चर्चा है। 1-बंध, 2- संक्रमण, 3- उत्कर्षण 4- अपवर्तन, 5- सत्ता, 6- उदय, 7उदीरणा, 8- उपशमन, 9- निधत्ति और 10-निकाचित। ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से तो इस प्रकार कर्म की 10 अवस्थाओं की कोई चर्चा नहीं मिलती है, किन्तु उसमें सोपादान, निरादान, विपाकयुक्त और उपक्रमति (अनुद्धित) कर्मों का उल्लेख हुआ है और यह कहा गया है कि ये सभी कर्म तप के द्वारा निर्जरित होते हैं। उसमें यह भी कहा गया है कि उपक्रमित, उत्करित, बद्ध, स्पृष्ट, और निद्धत कर्मों का संक्षोभ एवं क्षय हो सकता है, किन्तु निकाचित कर्मों को तो भोगना ही होता है। इस तथ्य से दो बातें स्पष्ट हो जाती है, प्रथम तो यह कि कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिनका फल भोग आवश्यक नहीं होता, तप आदि के माध्यम से उन्हें निर्जरित किया जा सकता है, किन्तु कुछ कर्म अवश्य ही ऐसे होते हैं, उनका भोग करना ही होता है। जैन कर्मसिद्धान्त में इन्हें क्रमशः अनिकाश्चित और निकाश्चित कर्म कहा गया है। इसके साथ ही ऋषिभाषित में बद्ध, स्पृष्ट और निद्धत कर्मों के ही फल विपाक में परिवर्तन की संभावना को स्वीकार किया गया है। ऋषिभाषित में इस तथ्य को इस उदाहरण से स्पष्ट किया गया है, जैसे अंजलि में भरा हुआ जल धीरे-धीरे क्षय हो जाता हैं। किन्तु निदान कृत कर्म अवश्य ही उदय में आते हैं। 40. संततं बंधए कम्म, निन्जरेइ य संतता संसारगोयरो जीवो. विसेसो उ तवोमओ।। - 'इसिभासियाई', 9/13 41. देखें-स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ. 254 42. सोपायाणा निरादाणा, विपाकेयरसंजुया। उवक्कमेण तवसा, निज्जरा जायए सया।। - वही, 9/12 43. उवक्कमो य उक्केरो, संछोभो खवणं तथा। बद्ध पुट्ठनिधत्ताणं, वेयणा तु णिकायिते।। - वही, 9/15 44. उक्कड्ढं तं जधा तोयं, सारिज्जंतं जधा जलं। संखविज्जा, णिदाणे वा, पावं कम्मं उदीरती।। -इसिभासियाई, 9/16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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