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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ३. प्रमाद है। ऋषिभाषित के उपर्युक्त अध्ययन में प्रमाद को अनेक प्रकार का बताया गया । सामान्यतया प्रमाद शब्द का अर्थ सजगता का अभाव या आलस्य होता है। जैन परंपरा में क्रोधादि कषायों को भी प्रमाद में वर्गीकृत किया जाता है उसका कारण यह है कि उनकी उपस्थिति में आत्मा का विवेक सामार्थ्य कुण्ठित हो जाती है। आत्मा चेतन का सुप्त होना ही प्रमाद है। ४. कषाय कषाय वस्तुतः दूषित आवेगों की सूचक है। क्रोध, मान (अहंकार), माया और लोभ इन चार को जैन परंपरा में कषाय के नाम से जाना जाता है। ५. योग 105 मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को जैन परंपरा में योग कहा गया है। ऋषिभाषित में भी योग का यही तात्पर्य है । हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि ऋषिभाषित और प्राचीन जैन ग्रंथों में योग को बंधन के कारण के रूप में विवेचित किया गया है। यद्यपि हरिभद्रादि परवर्ती जैन आचार्यों ने मुक्ति के साधन के रूप में भी विवेचित किया है, किन्तु यह अर्थ अपेक्षाकृत परवर्ती है। ऋषिभाषित में बंधनों के कारणों की चर्चा करते हुए यह भी कहा गया है कि अनेक प्रकार के संकल्प - विकल्पों के कारण जो पुरुषार्थ की निष्पत्ति होती है वही कर्म का द्वार है। इसका तात्पर्य यह है कि संकल्प पूर्वक जो विभिन्न प्रकार के कर्म किये जाते हैं, वे ही व्यक्ति के लिए बंधन का कारण होते हैं । ३४ अष्टविध कर्म ग्रंथि ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में कर्म की चर्चा के प्रसंग में अष्टविध कर्म ग्रंथि का उल्लेख हुआ है । १५ यद्यपि मूल ग्रंथ में ये अष्टविध कर्म ग्रंथियाँ कौन सी है इसका कोई विवेचन नहीं किया गया है। किन्तु परवर्ती जैन कर्म साहित्य के अध्ययन से हमें यह ज्ञात होता है कि ये अष्टविध कर्म ग्रंथियाँ कौन सी रही होंगी। जैन कर्म साहित्य में आठ प्रकार के कर्म माने गए हैं - ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम गोत्र और अंतराय कर्म। हो सकता है 34. निव्वत्ती वीरियं चेव, संकप्पे य अणेगहा। नाणा वण्णवियक्कस्स, दारमेयं हि कम्पुणो ।। 35. जस्सट्ठाए बिहेति, समुच्छिज्जिस्सति अट्ठा समुच्चिट्ठिस्सति... 36. 'कर्मग्रंथ', भाग 2, पृ. 121 Jain Education International For Private & Personal Use Only - 'इसिभासियाई', 9/10 - वही, 31/9 गद्यभाग (इ) -उत्तराध्ययन-33/2, 3 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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