SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो श्रा व स्ती में एक कुलकन्या का विवाह। मां-बाप ने भिक्षु-संघ के साथ भगवान को भी निमंत्रित किया। भगवान भिक्षु-संघ के साथ आकर आसन पर विराजे हैं। कुलकन्या भगवान के चरणों में झुकी और फिर अन्य भिक्षुओं के चरणों में। उसका होने वाला पति उसे देखकर नाना प्रकार के काम-संबंधी विचार करता हुआ रागाग्नि से जल रहा था। उसका मन काम की गहन बदलियों और धुओं से ढंका था। उसने भगवान को देखा ही नहीं। न देखा उस विशाल भिक्षुओं के संघ को। उसका मन तो वहां था ही नहीं। वह तो भविष्य में था। उसके भीतर तो सुहागरात चल रही थी। वह तो एक अंधे की भांति था। __भगवान ने उस पर करुणा की और कुछ ऐसा किया कि वह वधू को देखने में अनायास असमर्थ हो गया। जैसे वह नींद से जागा, ऐसे ही वह चौंककर खड़ा हो गया। और तब उसे भगवान दिखायी पड़े। और तब दिखायी पड़ा उसे भिक्षु-संघ। और तब दिखायी पड़ा उसे कि अब तक मुझे दिखायी नहीं पड़ रहा था। संसार का धुआं जहां नहीं है, वहीं तो सत्य के दर्शन होते हैं। वासना जहां नहीं है, वहीं तो भगवत्ता की प्रतीति होती है। उसे चौकन्ना और विस्मय में डूबा देखकर भगवान ने कहा, कुमार! रागाग्नि के समान दूसरी कोई अग्नि नहीं है। वही है नर्क, वही है निद्रा। जागो, प्रिय जागो! और जैसे शरीर उठ बैठा है, ऐसे ही तुम भी उत्तिष्ठित हो जाओ। उठो! उठने में ही मनुष्यता की शुरुआत है। और तब उन्होंने यह गाथा कही नत्थि रागसमो अग्गि नत्थि दोससमो कलि। नत्थि खंधसमा दुक्खा नत्थि संति परं सुखं ।। 'राग के समान आग नहीं है। द्वेष के समान मैल नहीं है। पंचस्कंधों के समान दुख नहीं है। शांति से बढ़कर सुख नहीं है।' पहले तो इस प्रसंग को ठीक से समझ लें। यह प्रसंग अनूठा है। साधारणतः भारत में परंपरा रही है कि विवाह के समय किसी संन्यासी को निमंत्रित न किया जाए। हिंदू विवाह में किसी संन्यासी को निमंत्रित नहीं करते। यह बात तर्कयुक्त मालूम होती है। क्योंकि कहां संन्यास और कहां विवाह! इन दोनों का क्या मेल? संन्यासी की मौजूदगी, जो लोग विवाह में बंधने जा रहे हैं, उनके लिए बाधा भी बन सकती है। संन्यासी की उपस्थिति उनके लिए इस बात का स्मरण भी बन सकती है कि संसार व्यर्थ है। जो अभी राग के सपनों में सोने जा रहे हैं, उन्हें यह नींद है, यह आग है, यह वासना व्यर्थ और असार है, ऐसी प्रतीति देने वाले व्यक्ति के करीब ले जाना उचित नहीं है।
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy