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________________ ताओ उपनिषद भाग २ गए, जब हमने भरने की दौड़ ही छोड़ दी, जब हमने भरने का स्वप्न ही तोड़ दिया, जब हमने भुलाने के भी आयोजन नहीं किए, जब हम राजी ही हो गए और जब हमने कहा कि खालीपन मेरे भीतर है ऐसा नहीं, मैं ही खालीपन हं, तो खालीपन खो जाता है। क्योंकि खालीपन के होने के लिए पृष्ठभूमि में भरे होने की आकांक्षा चाहिए। जैसे काले तख्ने पर सफेद खड़िया से हम कुछ लिख देते हैं। फिर काले तख्ने को कोई पीछे से खींच ले, सफेद लिखा हुआ खो जाए; क्योंकि सफेद लिखा हुआ दिखाई पड़ता था काले तख्ने के कारण। विपरीत चाहिए अनुभव के लिए। खालीपन का अनुभव होता है, क्योंकि विपरीत हमारे भीतर महत्वाकांक्षा है भरे होने की। भरे होने की आकांक्षा नहीं है, खालीपन का अनुभव खो जाता है। हमें दुख का अनुभव होता है, क्योंकि सुख की आकांक्षा है। सुख की आकांक्षा नहीं, दुख का अनुभव खो जाता है। मृत्यु हमें डराती है, क्योंकि जीवन पर हमारी पकड़ है। जीवन पर पकड़ न हो, मृत्यु की बात समाप्त हो जाती है। अपमान हमें कांटे की तरह चुभता है, क्योंकि सम्मान के फूल पाने के लिए हम पागल हैं। सम्मान के फूल पाने की बात खो जाए, अपमान का कांटा उसके साथ ही तिरोहित हो जाता है। विपरीत चाहिए अनुभव के लिए। अगर आपको रिक्तता अनुभव होती है, तो सबूत है कि आप भरे होने की । आकांक्षा में लगे हैं। अगर आपको दुख अनुभव होता है, तो सबूत है कि आप ने सुख की मांग कर रखी है। अगर आपको अपमान पीड़ा देता है, तो आप सम्मान के लिए विक्षिप्त हैं। अगर यह दिखाई पड़ जाए, तो लाओत्से का सूत्र समझ में आ जाए कि संत का आत्यंतिक गुण है : रिक्त हो जाना। और उसके बाद उसने कहा है कि विनम्र, मटमैले पानी की भांति। विनम्रता दो प्रकार की है। इसे थोड़ा समझ लें। विनम्रता दो प्रकार की है। एक तो ऐसी विनम्रता है, जो सिर्फ अहंकार का आभूषण है। अगर हम उसके लिए प्रतीक चुनना चाहें, तो हम कहेंगे, गंगा के पवित्र जल की भांति। विनम्र-गंगा के पवित्र जल की भांति। पवित्रता का भी एक अहंकार है। और विनम्रता का भी एक अहंकार है। ऐसा विनम्र आदमी घोषणा करता फिरता है सब तरह से कि मैं बिलकुल विनम्र हूं, मैं आपके पैरों की धूल हूं, मैं कुछ भी नहीं। उसकी आंखों में झांकें, उसके उठने में, उसके बैठने में; और दिखाई पड़ेगा, वह सब कुछ है। और अगर उस आदमी को आप कह दें कि आपसे भी ज्यादा विनम्र आदमी का आगमन गांव में हो गया है, तो वह आदमी उतना ही पीड़ित होगा, जैसा कोई और अहंकारी पीड़ित हो। उसकी विनम्रता नंबर एक है। नंबर दो का विनम्र वह न होना चाहेगा। विनम्रता भी नंबर एक हो सकती है? और अगर विनम्रता भी शिखर बनती है, तो विनम्रता कहां रही? शिखर तो अहंकार बनता है। तो जिसे विनम्रता का पता है, वह विनम्र नहीं है। जिसे बोध है कि मैं विनम्र हूं, वह अहंकारी है। क्योंकि बिना विपरीत के विनम्रता का बोध भी नहीं होगा। जो घोषणा करता है कि मैं विनम्र हूं, वह अहंकारी है। जो कहता है चरणों की धूल है, वह अहंकारी है। अन्यथा यह बोध भी नहीं होगा। इस बोध का भी कोई उपाय नहीं है। अहंकार विनम्र होने का धोखा दे सकता है: देता है। क्योंकि हम सिखा रहे हैं। मैं एक विश्वविद्यालय में गया था। वहां मैंने तख्ती लगी देखी वाइस चांसलर के कमरे में-कि जो विनम्र हैं, वे ही सम्मान को प्राप्त होंगे। विद्यार्थियों के लिए लगाई होगी-कि जो विनम्र हैं, वे सम्मान को प्राप्त होंगे। लेकिन यह बड़े मजे की बात है। आधा हिस्सा, पिछला हिस्सा पहले हिस्से के विपरीत है। जो विनम्र हैं, वे सम्मान को प्राप्त होंगे। तो जो सम्मान पाना चाहते हैं, वे विनम्र होने की कोशिश शुरू करें। निश्चित ही, हमारे अहंकार से भरे समाज में जिसे भी सम्मान चाहिए, उसे विनम्र होना चाहिए। नहीं तो सम्मान नहीं मिलेगा। हम उसी को सम्मान देते हैं, जो विनम्र हो जाए। और बड़े मजे की बात है कि हमें इसका 228
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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