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________________ 291. जीव प्रमादी जीवो पमाय बहुलो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2570] - उत्तराध्ययन 10/15 जीव स्वभाव से ही बहुत प्रमादी है। 292. कर्म-विपाक गाढा य विवागकम्मुणो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2570] - उत्तराध्ययन - 1017 कर्मों के फल बड़े गाढ़ होते हैं। 293. इन्द्रियाँ, दुर्लभ अहीण पंचेंदियता हु दुल्लहा । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2570] - उत्तराध्ययन 1047 पाँचों इन्द्रियों की परिपूर्णता प्राप्त होना दुर्लभ है। 294. धर्मश्रुति, दुर्लभ उत्तमधम्म सुई हु दुल्लहा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग पृ. 2570] - उत्तराध्ययन - 10/08 उत्तम धर्मश्रुति निश्चित ही दुर्लभ है। 295. प्रमाद चित नहीं से सव्वबले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए । .- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2571] - उत्तराध्ययन - 10/26 शरीर का सब बल क्षीण होता जा रहा है। अतएव हे गौतम ! क्षणभर के लिए भी प्रमाद उचित नहीं है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 131
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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