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________________ का, लक्खणं - लक्षण है, तु पुन:, इति - आद्यर्थक है। मूलार्थ - शब्द, अन्धकार, उद्योत अर्थात् प्रकाश, प्रभा अर्थात् कान्ति, छाया, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श ये सब पुद्गल के लक्षण हैं। है। टीका - 'पुद्गल' - यह जड़ पदार्थों के लिए प्रयुक्त होने वाला जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द शब्द, अन्धकार और उद्योत आदि सब पुद्गल के ही गुण हैं और इन्हीं पुद्गल - द्रव्य के मूर्त होने से शब्दादि भी मूर्त पदार्थ हैं। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय का विषय होने से अन्धकार, उद्योत और प्रभा आदि पौद्गलिक द्रव्य हैं। अनेक विद्वान् अन्धकार को अभाव रूप मानते हैं, परन्तु विचार - दृष्टि से देखा जाए तो उनका यह कथन प्रामाणिक और युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि अन्धकार को अभावरूप नहीं माना जा सकता, वह तो भाव-रूप पदार्थ है; इसी आशय से सूत्रकार ने अन्धकार को पौद्गलिक द्रव्य स्वीकार किया है। ओतप, शब्द के विषय में भी यही व्यवस्था है, अर्थात् शब्द भी गुणरूप नहीं, किन्तु पौद्गलिक रूप स्वतंत्र द्रव्य है। जो लोग शब्द को आकाश का गुण मानते हैं, वे भ्रान्त से प्रतीत होते हैं; कारण यह है कि आकाश अमूर्तपदार्थ है और शब्द मूर्तपदार्थ, मूर्तपदार्थ अमूर्त का गुण हो नहीं सकता। इसीलिए शब्द को आकाश का गुण मानना युक्ति-संगत नहीं है, किन्तु शब्द पौद्गलिक अर्थात् पुद्गल का पर्याय. है - यही मानना युक्ति और प्रमाण-संगत है। इस प्रकार द्रव्य के लक्षण और गुणों का निरूपण करने के अनन्तर अब पर्याय के विषय में कहते हैं एगत्तं च पुहत्तं च, संखा संठाणमेव य । संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं ॥ १३ ॥ एकत्वं च पृथक्त्वं च, संख्या - संस्थानमेव च । संयोगाश्च विभागाश्च, पर्यायाणां तु लक्षणम् ॥ १३ ॥ पदार्थान्वयः - एगत्तं - एकत्व, च- और, पुहत्तं - पृथक्त्व, च- पुनः संखा - संख्या, य-और, संठाणं-संस्थान, एव-निश्चय अर्थ में है, संजोगा - संयोग, य-और, विभागा- विभाग, य- समुच्चय में है, पज्जवाणं-पर्यायों का, तु- पादपूर्ति में, लक्खणं - लक्षण है। मूलार्थ - एक अर्थात् इकट्ठा होना, पृथक्त्व अर्थात् अलग होना, संख्या, संस्थान - आकार, • १. नैयायिकों ने शब्द को आकाश का गुण माना है- 'शब्दगुणकमाकाशम्', परन्तु जैनदर्शन को यह स्वीकार्य नहीं है। उसके मत में तो शब्द पौद्गलिक द्रव्य है । इस सिद्धान्त को वर्तमान समय का ग्रामोफोन और रेडियो ट्रांजिस्टर आदि का आविष्कार प्रत्यक्षरूप से प्रमाणित कर रहा है। २. इस विषय की अधिक स्पष्टता के लिए स्याद्वादमंजरी, रत्नाकरावतारिका और सन्मतितर्क आदि ग्रन्थों का अवलोकन करें। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ८० ] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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