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________________ संयोग और विभाग-ये सब पर्यायों के लक्षण अर्थात् पर्याय के असाधारण धर्म हैं। टीका-प्रस्तुत गाथा में पर्यायों के लक्षण बताए गए हैं। द्रव्य में अनेक प्रकार के जो परिवर्तन होते हैं वे ही पर्याय के नाम से प्रसिद्ध हैं। जैसे कि, 'सत्' यह द्रव्य का लक्षण है और 'सत्' उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-युक्त ही माना जाता है, अतः द्रव्य में जो उत्पाद-व्यय रूप धर्म उत्पन्न होते हैं, उन्हीं को पर्याय कहते हैं। पुद्गल-द्रव्य के सत् होने पर भी परमाणुओं का एकत्र होना, अथवा पृथक्-पृथक् होना एवं संख्या-बद्ध होना तथा आकार-युक्त होना वा संयुक्त होना और विभक्त होना-ये सब पर्याय के ही असाधारण धर्म हैं, अतएव इनको पर्यायों का लक्षण बताया गया है। ____ ऊपर कहा जा चुका है कि सहभावी धर्म को गुण और क्रमभावी धर्मों को पर्याय कहते हैं। जैसे कि एक ही पुद्गल-द्रव्य में क्रमपूर्वक अनेक प्रकार के एकत्व-पृथक्त्वादि भाव उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं; बस ये ही पर्याय कहे जाते हैं। द्रव्य नित्य है और पर्याय अनित्य है। कारण यह है कि उत्पाद और व्यय के होने पर द्रव्य की सत्ता का अभाव नहीं होता। जैसे कि स्वर्ण-पिंड में कटकरूप का उत्पाद और कुंडलरूप का विनाश होता है, परन्तु उत्पत्ति और विनाश के होने पर भी स्वर्ण का अपना मूल स्वरूप नष्ट नहीं होता, अपितु वह अपने मूलरूप से सर्वदा स्थित रहता है। इसी प्रकार परमाणुओं के समूह का एकत्र होकर घड़े का आकार बन जाना एकत्व है और परमाणुओं के समूह का बिखर जाना पृथक्त्व है। इसी प्रकार संयोग और विभाग के विषय में भी समझ लेना चाहिए और 'च' शब्द से नवीन और पुरातन अवस्था-रूप पर्यायों की कल्पना कर लेनी चाहिए। इस प्रकार ज्ञान का वर्णन करने के अनन्तर अब दर्शन के विषय में कहते हैं, यथा - जीवाजीवा य बन्धो य, पुण्णं पावाऽऽसवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, सन्तए तहिया नव ॥ १४ ॥ जीवा अजीवाश्च बन्धश्च, पुण्यं पापाश्रवौ तथा । - संवरो निर्जरा मोक्षः, सन्त्येते तथ्या नव ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः-जीवा-जीव, य-और, अजीवा-अजीव, य-तथा, बन्धो-बन्ध, पुण्णं-पुण्य, तहा-तथा, पावा-पाप, आसवो-आस्रव, संवरो-संवर, निज्जरा-निर्जरा, मोक्खो-मोक्ष, एए-ये, तहिया-तथ्य-पदार्थ, नव-नौ, सन्ति-हैं। ___मूलार्थ-जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ पदार्थ ____टीका-जीव एकेन्द्रियादि और अजीव धर्मास्तिकाय आदि, बन्ध-जीव और कर्म का अत्यन्त श्लेषरूप, पुण्य-शुभ प्रकृतिरूप, पाप-अशुभप्रकृतिरूप, आस्रव-कर्मों के आगमन मार्ग, संवर-आस्रव का निरोध, निर्जरा-आत्मा से कर्मदलकों का अलग होना, मोक्ष-घाति-आघाति समस्त कर्माणुओं का समूलघात-ये नौ पदार्थ जिनेन्द्र भगवान् ने भव्य जीवों के कल्याणार्थ वर्णन किए हैं। वास्तव में तो जीव और अजीव ये दो ही मुख्य पदार्थ हैं, अन्य सबका इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है। तात्पर्य यह है कि - उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [८१] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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