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________________ (आकुलतारूप) से जाना जाता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख ये चारों लक्षण अजीव पदार्थ में नहीं हैं और इसके विपरीत सजीव पदार्थों में ये पाए जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि ज्ञानादि लक्षण जिसमें हों वही जीव है। अब शिष्यों की विशेष दृढ़ता के लिए जीव का लक्षणान्तर कहते हैं नाणं च दंसणं चेव, वीरियं उवओगो य, एयं चरितं च तवो तहा । जीवस्स लक्खणं ॥ ११ ॥ ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं च तपस्तथा । वीर्यमुपयोगश्च, एतज्जीवस्य लक्षणम् ॥ ११ ॥ - पदार्थान्वयः-नाणं-ज्ञान, च- और, दंसणं- दर्शन, च- पुनः, एव - अवधारणार्थ में है, चरितं - चारित्र, तहा - तथा, तवो-तप, वीरियं वीर्य, य-और, उवओगो- उपयोग, एयं - यह, जीवस्स - जीव का, लक्खणं - लक्षण है। मूलार्थ - - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग - ये सब जीव के लक्षण हैं। टीका - प्रस्तुत गाथा में जीव के विशिष्ट लक्षणों का वर्णन किया गया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये सब जीव के असाधारण लक्षण हैं, क्योंकि जो द्रव्य - आत्मा है वह निश्चय ही ज्ञान और दर्शनात्मा से संयुक्त है तथा वीर्यात्मा आदि भी साथ में हैं, इसी हेतु से सूत्रकार ने वीर्य तथा उपयोग को जीव का लक्षण कहा है। यद्यपि वीर्य जड़ पदार्थों में भी विद्यमान है, परन्तु वह वीर्य शून्यता गुण वाला है, अतएव साथ में उपयोग पद का उल्लेख किया गया है ताकि जड़ पदार्थ की व्यावृत्ति हो जाए। कारण यह है कि वीर्य और उपयोग- ये दोनों जीवतत्त्व को छोड़ कर अन्यत्र कहीं पर नहीं रहते। इसके अतिरिक्त उपयोग में ज्ञान और दर्शन का तथा वीर्य में तप और चारित्र का अन्तर्भाव करके, वीर्य और उपयोग यही जीव का यथार्थ लक्षण माना गया है। वीर्य की उत्पत्ति का कारण वीर्यान्तराय - कर्म का क्षय, अथवा क्षयोपशम भाव है। अब पुद्गल द्रव्य के विषय में कहते हैं - सद्दन्धयार-उज्जोओ, पभा छायाऽऽतवो इ वा । वण्णरसगन्धफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ १२ ॥ शब्दाऽन्धकारोद्योतः, प्रभाच्छायाऽऽतप इति वा । - रस- गन्ध-स्पर्शाः, पुद्गलानां तु लक्षणम् ॥ १२ ॥ वर्णं-र पदार्थान्वयः - सह - शब्द, अन्धयार - अन्धकार, उज्जोओ-उद्योत, पभा - प्रभा, छाया - छाया, आतवो-आतप, वा-समुच्चयार्थक है, वण्ण-वर्ण, रस- रस, गन्ध - गन्ध, फासा - स्पर्श, पुग्गलाणं - पुद्गलों उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ७९] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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