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________________ सब को अवकाश देना उसका लक्षण है। टीका-जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाए उसको लक्षण कहते हैं। प्रस्तुत गाथा में धर्म, अधर्म और आकाश इन तीन द्रव्यों के लक्षण बताए गए हैं। जीव और पुद्गल की गतिरूप क्रिया में सहायता पहुंचाने वाला द्रव्य धर्मास्तिकाय है, अत: उसको गति-लक्षण कहते हैं। जिस प्रकार मत्स्य के गमनागमन में जल सहायक होता है, अर्थात् जल के बिना जैसे वह गमन नहीं कर सकता, इसी प्रकार जीव और पुद्गल द्रव्य भी धर्मद्रव्य के बिना गमन नहीं कर सकते। तात्पर्य यह है कि जीव और पुद्गल की गति धर्म-द्रव्य पर आश्रित है। ___ इसी प्रकार जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायता देने वाला अधर्म-द्रव्य है, इसलिए उसको स्थितिलक्षण कहा गया है। जैसे धूप में चलने वाले पथिक को विश्राम के लिए वृक्ष की सघन छाया सहायक होती है, अर्थात् उसकी स्थिति में कारणभूत होती है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक होने वाला अधर्म-द्रव्य है। समस्त पदार्थों का आधारभूत आकाश द्रव्य है, अतएव 'सबको अवकाश देना' उसका लक्षण है, अर्थात् जिसमें सर्व द्रव्य रहते हैं वह आकाश है। तात्पर्य यह है कि आकाश सबका आधार है और शेष द्रव्य उसके आधेय हैं। अब फिर इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हैं - वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उवओगलक्खणो । नाणेणं दंसणेणं च, सुहेण य दुहेण य ॥ १० ॥ वर्तनालक्षणः कालः, जीव उपयोगलक्षणः । ज्ञानेन दर्शनेन च, सुखेन च दुःखेन च ॥ १० ॥ , पदार्थान्वयः-वत्तणालक्खणो-वर्तना-लक्षण, कालो-काल है, जीवो-जीव, उवओगलक्खणोउपयोगलक्षण वाला है, नाणेणं-ज्ञान से, च-और, दंसणेणं-दर्शन से, सुहेण-सुख से, य-वा, दुहेण-दुःख से-जीव जाना जाता है, य-समुच्चय अर्थ में है। मूलार्थ-वर्तना काल का लक्षण है, उपयोग (ज्ञानादि व्यापार ) जीव का लक्षण है और वह जीव ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख से जाना जाता है। टीका-पदार्थ की क्रियाओं के परिवर्तन से समय की जो गणना की जाती है उसे वर्तना कहते हैं। यह 'वर्तना' ही काल का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि जिस-जिस ऋतु में जो-जो भाव उत्पन्न होने वाले होते हैं, औपचारिकनय के मत से उन-उन भावों का कर्ता काल-द्रव्य ही माना जाता है, क्योंकि सर्व द्रव्यों में काल-द्रव्य वर्त रहा है और इसी कारण से द्रव्यों में नूतन और पुरातन पर्याय उत्पन्न होते हैं। उन सबका कर्ता काल ही है, अतएव ऋतु-विभाग से जो शीत, आतपादि पर्यायों अर्थात् दशाओं की उ उत्पत्ति होती है उन सबका कारण काल-द्रव्य ही है तथा उपयोग अर्थात ज्ञानादि-व्यापार जीव का लक्षण है। यह जीव ज्ञान (विशेषग्राही), दर्शन (सामान्यग्राही), सुख (आनन्दरूप) और दुःख उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [७८ ] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अन्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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